raktdaan karne pr mitra ki prashansa ka gungan Karte huye Patra likhiye
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एक शख्स जिसकी तमन्ना है रक्तदान का शतक लगाना
By: अखिलेश त्रिपाठी
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blood donation
मृत्यु परांत नेत्र दान का संकल्प कर चुके, देह दान की भी है इच्छा, जानें कौन है ये शख्स..
डॉ. अजय कृष्ण चतुर्वेदी
वाराणसी. घर परिवार सगे संबंधी को तकलीफ में रक्त देने में भी बहुतों को सौ बार सोचना होता है. वहीं इस काशी में एक शख्स ऐसा है जो रक्तदान का शतक लगाना चाहता है. उनका लक्ष्य प्रकृति प्रदत्त शरीर को समाज के उपयोग में समर्पित करना है. मिट्टी के शरीर को जला या दफना कर न प्रदूषण फैलाना है न सिकुड़ती धरती पर जगह छेकना है. तभी तो वह मेडिकल छात्रों के लिए अपनी देह भी दान करना चाहते हैं. नेत्र दान की प्रक्रिया पहले ही पूरी कर चुके हैं.
78 बार कर चुके रक्तदान
पर्यावरण संरक्षण, सूचना के अधिकार, सांस्कृतिक गतिविधियों और जनजागरूकता की दिशा में सतत प्रयास के लिए अपनी पहचान बना चुके सामाजिक कार्यकर्ता वल्लभाचार्य पिछले 25 वर्षों से नियमित रक्तदाता हैं.अब तक 78 बार रक्तदान कर चुके है. इतने अवसरों में उन्होंने मात्र 3 बार अपने रक्त सम्बन्धियों के लिए रक्तदान किया है, शेष सभी बार किसी मित्र, परिचित,सोशल मीडिया के संपर्कों अथवा वेबसाईट से रक्तदाता सूची में नाम देख कर आये हुए फोन काल पर किसी आवश्कता वाले मरीज को रक्त दिलवाले के लिए रक्तदान किया है. वे प्रायः शिविरों में रक्तदान नही कर पाते. आकस्मिक मांग वाले लोगों के लिए रक्तदान करना उन्हें अधिक व्यावहारिक लगता है.
चौबेपुर क्षेत्र के भन्दहा कला (कैथी) के निवासी वल्लभाचार्य पाण्डेय मूलतः एक किसान परिवार से हैं. पाण्डेय के अनुसार उम्र का 46 वां वर्ष है इश्वर की कृपा से रक्तदान का शतक लग लग जाय बस यही इच्छा है, मरणोपरांत नेत्रदान का संकल्प पत्र भर चुका हूं, 50वें जन्मदिन पर देहदान का संकल्प पत्र आयुर्विज्ञान संसथान बी एच यू में जाकर भरूंगा ताकि मेरे बाद इस शरीर का उपयोग चिकित्सा विज्ञान के अध्ययन में आ सके.
ट्रेन दुर्घटना के पीड़ितों को रक्तदान से शुरू हुआ सफर
नियमित रक्तदान के इस पुनीत कार्य की शुरुआत के बारे में वल्लभाचार्य ने बताया कि इलाहाबाद में स्नातक शिक्षा के दौरान 1990 में एक भीषण ट्रेन दुर्घटना हुयी थी बहुत लोग घायल हुए थे, इलाहबाद के अस्पतालों में रक्त की कमी होने पर प्रशासन द्वारा रक्तदान की अपील की गयी थी उस दौरान ही छात्र छात्राओं के दल के साथ मेडिकल कालेज जाकर पहली बार रक्त दान किया था, यद्यपि बहुत डर लग रहा था लेकिन सहपाठियों के बीच मजाक न बने इस लिए हिम्मत दिखाई,लेकिन रक्तदान के बाद मिली तसल्ली और वाहवाही ने एक परम्परा को जन्म दिया जो आज तक जारी है. शिक्षा के बाद कुछ वर्ष एक दवा कम्पनी में दवा प्रतिनिधि के रूप में अस्पतालों में आते जाते अक्सर अनजान लोगों के लिए रक्तदान करना पड जाता रहा. जो बाद में सामाजिक जीवन में आने के बाद और नियमित हो गया. यद्यपि बीच में इस क्रम कुछ व्यवधान भी पड़ा. इसके पूर्व वर्ष में 3 से 4 बार रक्तदान हो ही जाता रहा.
शादी के बाद आया था विराम
पाण्डेय के अनुसार वर्ष 2003 में विवाह के बाद धर्मपत्नी और अन्य परिजनों की आपत्ति के कारण 2-3 वर्षों तक रक्तदान नही कर सका इस बीच त्वचा संबधी गम्भीर बीमारी का भी शिकार हुआ जिसके इलाज के लिए पी जी आई लखनऊ तक जाना पड़ा. वर्ष 2006 में अचानक एक परिचित के परिजन को रक्त की आवश्यकता पड़ी, चिकित्सक ने बताया कि त्वचा संबधी बीमारी के बावजूद रक्तदान करने में कोई दिक्कत नही होगी, फिर क्या था परिवार की न जानकारी में सिलसिला फिर शुरू हुआ जो आज भी जारी है. अब परिवार में भी लोग इसे गलत नही मानते. वल्लभाचार्य का कहना है कि शायद यह मेरा वहम हो लेकिन रक्तदान पुनः नियमित रूप से करने पर अब त्वचा सम्बन्धी कोई दिक्कत पिछले 5 वर्ष से हुयी. उन्हें यह बताने में भी सतुष्टि मिलती है कि मेरा और प्रधानमंत्री मोदी जी का रक्त समूह एक ही है "ए-धनात्मक" ।