History, asked by rkshukla734, 11 months ago

Ram ki sena me kitne senapati thhe?

Answers

Answered by amankumar44878
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Explanation:

कहते हैं - युधिष्ठिर! तदनन्तर सुग्रीव की आज्ञा के अनुसार बड़े-बड़े वानर वीर माल्यवान पर्वत लक्ष्मण आदि के साथ बैठे हुए भगवान श्रीराम के पास पहुँचने लगे। सबसे पहले बाली के श्वसुर श्रीमान सुषेण श्रीरामचन्द्र जी की सेवा में उपस्थित हुए। उनके साथ वेगशाली वानरों की सहस्र कोटि[2] सेना थी। फिर महापराक्रमी वानरराज ‘गज’ और ‘गवय’ पृथक-पृथक एक-एक अरब सेना के साथ आते दिखाई दिये। महाराज! गोलांगूल (लंगूर) जाति के वानर गवाक्ष, जो देखने में बड़ा भयंकर था, साठ सहस्र कोटि (छः अरब) वानर सेना साथ लिये दृष्टिगोचर हुआ। गन्धमादन पर्वत पर रहने वाला गन्धमादन नाम से विख्यात वानर वानरों की दस खरब सेना साथ लेकर आया। पनस नामक बुद्धिमान तथा महाबली वानर सत्तावन करोड़ सेना साथ लेका आया।

वानरों में वृद्ध तथा अत्यन्त पराक्रमी श्रीमान दधिमुख भयंकर तेज से सम्पन्न वानरों की विशाल सेना साथ लेकर आये। जिनके मुख (ललाट) पर तिलक का चिह्न शोभा पा रहा था तथा जो भयंकर पराक्रम करने वाले थे, ऐसे काले रंग के शतकोटि सहस्र (दस अरब) रीछों की सेना के साथ वहाँ जाम्बवान दिखायी दिये। महाराज! ये तथा और भी बहुत से वानरयूथ पतियों के भी यूथपति, जिनकी कोई संख्या नहीं थी, श्रीरामचन्द्रजी के कार्य से वहाँ एकत्र हुए। उनके अंग पर्वतों के शिखर के सदृश जान पड़ते थे। वे सबके सब सिंहों के समान गरजते और इधर-उधर दौड़ते थे। उन सबका सम्मिलित शब्द बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। कोई पर्वत-शिखर के समान ऊँचे थे, तो कोई भैंसों के सदृश मोटे और काले। कितने ही वानर शरद ऋतु के बादलों की तरह सफेद दिखायी देते थे, कितनों के ही मुख सिंदूर के समान लाल रंग के थे।

राम आदि का युद्ध के लिए प्रस्थान

वे वानर सैनिक उछलते, गिरते-पड़ते, कूदते-फाँदते और धूल उड़ाते हुए चारों ओर से एकत्र हो रहे थे। वानरों की वह विशाल सेना भरे-पूरे महासागर के समान दिखायी देती थी। सुग्रीव की आज्ञा से उस समय माल्यवान पर्वत के आस-पास ही उस समसत सेना का पड़ाव पडत्र गया। तदनन्तर उन समस्त श्रेष्ठ वानरों के सब ओर से एकत्र हो जाने पर सुग्रीव सहित भगवान श्रीराम ने एक दिन शुभ तिथि, उत्तम नक्षत्र और शुभ मुहुर्त में युद्ध के लिये प्रस्थान किया। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो वे उस व्यूह-रचना युक्त सेना के द्वारा सम्पूर्ण लोकों का संहार करने जा रहे हैं। उस सेना के मुहाने पर वायुपुत्र हनुमान जी विराजमान थे। किसी से भी भय न मानने वाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मण उसके पृष्ठभाग की रक्षा कर रहे थे। दोनों रघुवंशी वीर श्रीराम और लक्ष्मण हाथों में गोह के चमड़े के बने हुए दस्ताने पहने हुए थे। वे ग्रहों से घिरे हुए चन्द्रमा और सूर्य की भाँति वानर जातीय मन्त्रियों के बीच में होकर चल रहे थे। श्रीरामचन्द्र जी के सम्मुख साल, ताल और शिलारूपी आयुध लिये वे समसत वानर सैनिक सूर्योदय के समय पके हुए धान के विशाल खेतों के समान जान पड़ते थे।[1]

वानरसेना का आगे बढ़ना

नल, नील, अंगद, क्राथ, मैन्द तथा द्विविद के द्वारा सुरक्षित हुई वह विशाल वानरसेना श्रीरामचन्द्र जी का कार्य सिद्ध करने के लिये आगे बढ़ती जा रही थी। जहाँ फल-मूल की बहुतायत होती, मधु और कन्द-मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते तथा जल की अधिक सुविधा होती, ऐसे कल्याणकारी और उत्तम विविध पर्वतीय शिखरों पर डेरा डालती हुई वह वानर सेना बिना किसी विघ्न-बाधा के खारे पानी के समुद्र के निकट जा पहुँची। असंख्य ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित वह विशाल वाहिनी दूसरे महासागर के समान जान पड़ती थी। सागर के तटवर्ती वन में पहुँचकर उसने अपना पड़ाव डाला।

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