रसखान के काव्य का भाव एवं शिल्प सौन्दर्य को सोदाहरण स्पष्ट किजिये ?
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सैय्यद इब्राहिम रसखान के काव्य के आधार भगवान श्रीकृष्ण हैं। रसखान ने उनकी ही लीलाओं का गान किया है। उनके पूरे काव्य- रचना में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की गई है। इससे भी आगे बढ़ते हुए रसखान ने सुफिज्म (तसव्वुफ) को भी भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से ही प्रकट किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक एवं आपसी सौहार्द के कितने हिमायती थे।
होली वर्णन
कृष्ण भक्त कवियों की तरह रसखान ने भी कृष्ण जी की उल्लासमयी लीलाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उन्होंने अपने पदों में कृष्ण को गोपियों के साथ होली खेलते हुए दिखाया गया है, जिनमें कृष्ण गोपियों को किंभगो देते हैं। गोपियाँ फाल्गुन के साथ कृष्ण के अवगुणों की चर्चा करते हुए कहती हैं कि कृष्ण ने होली खेल कर हम में काम- वासना जागृत कर दी हैं। पिचकारी तथा घमार से हमें किंभगो दिया है। इस तरह हमारा हार भी टूट गया है। रसखान अपने पद में कृष्ण को मर्यादा हीन चित्रित किया है:-
आवत लाल गुलाल लिए मग सुने मिली इक नार नवीनी।
त्यों रसखानि जगाइ हिये यटू मोज कियो मन माहि अधीनी।
सारी फटी सुकुमारी हटी, अंगिया दरकी सरकी रंग भीनी।
लाल गुलाल लगाइ के अंक रिझाइ बिदा करि दीनी।
हरि शंकरी
रसखान हरि और शंकर को अभिन्न मानते थे-
इक और किरीट बसे दुसरी दिसि लागन के गन गाजत री।
मुरली मधुरी धुनि अधिक ओठ पे अधिक नाद से बाजत री।
रसखानि पितंबर एक कंधा पर वघंबर राजत री।
कोड देखड संगम ले बुड़की निकस याह भेख सों छाजत री।
शिव स्तुति
रसखान के पदों में कृष्ण के अलावा कई और देवताओं का ज़िक्र मिलता है। शिव की सहज कृपालुता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि उनकी कृपा दृष्टि संपूर्ण दुखों का नाश करने वाली है-
यह देखि धतूरे के पात चबात औ गात सों धूलि लगावत है। चहुँ ओर जटा अंटकै लटके फनि सों कफ़नी पहरावत हैं। रसखानि गेई चितवैं चित दे तिनके दुखदुंद भाजावत हैं। गजखाल कपाल की माल विसाल सोगाल बजावत आवत है।
गंगा गरिमा
गंगा की महिमा के वर्णन की परिपाटी का अनुसरण करते हुए रसखान ने भी गंगा की स्तूति में एक पद ही सही, मगर लिखा है --
बेद की औषद खाइ कछु न करै बहु संजम री सुनि मोसें।
तो जलापान कियौ रसखानि सजीवन जानि लियो रस तेर्तृ।
एरी सुघामई भागीरथी नित पथ्य अपथ्य बने तोहिं पोसे।
आक धतूरो चाबत फिरे विष खात फिरै सिव तेऐ भरोसें।
प्रेम तथा भक्ति
प्रेम तथा भक्ति के क्षेत्र में भी रसखान ने प्रेम का विषद् और व्यापक चित्रण किया है। 'राधा और कृष्ण प्रेम वाटिका' के मासी मासिन हैं। प्रेम का मार्ग कमल तंतू के समान नागुक और अतिधार के समान कठिन है। अत्यंत सीधा भी है और टेढ़ा भी है। बिना प्रेमानुभूति के आनंद का अनुभव नहीं होता। बिना प्रेम का बीज हृदय में नहीं उपजता है। ज्ञान, कर्म, उपासना सब अहंकार के मूल हैं। बिना प्रेम के दृढ़ निश्चय नहीं होता। रसखान द्वारा प्रतिपादित प्रेम आदर्शों से अनुप्रेरित है। रसखान ने प्रेम का स्पष्ट रुप में चित्रण किया है। प्रेम की परिभाषा, पहचान, प्रेम का प्रभाव, प्रेम प्रति के साधन एवं प्रेम की पराकाष्ठा प्रेम वाटिका में दिखाई पड़ती है। रसखान द्वारा प्रतिपादित प्रेम लौकिक प्रेम से बहुत ऊँचा है। रसखान ने 52 दोहों में प्रेम का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह पूर्णतया मौलिक हैं।
वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँपुर को तजि डारौ।
आठहु सिद्धि नवाँ निधि को सुख नंद की गाइ चराई बिसरौ।
ए रसखानि गवै इन नैनन ते ब्ज के बन- बाग निहारै।
कोटिका यह कलघोत के धाम करील की कुंजन उपावारौ।
बाल्य वर्णन
धूरि भरे अति शोभित श्याम जू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनिया कटि पीरी कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग कहा कहिए हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।।
कला पक्ष
मुख्य लेख : रसखान का कला-पक्ष
कवि ने कहीं चमत्कार लाने के लिए अलंकारों को बरबस ठूंसने की चेष्टा नहीं की है। भाव और रस के प्रवाह पर भी उसकी दृष्टि केन्द्रित रही है। भावों और रसों की अभिव्यक्ति को उत्कृष्ट बनाने के लिए ही अलंकारों की योजना की गई है। उचित स्थान पर अलंकारों का ग्रहण किया गया है। उन्हें दूर तक खींचने का व्यर्थ प्रयास नहीं किया गया है। औचित्य के अनुसार ठीक स्थान पर उनका त्याग कर दिया गया है। रसखान द्वारा प्रयुक्त अलंकार अपने 'अलंकार' नाम को सार्थक करते हैं। शब्दालंकारों में अनुप्रास और अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं रूपक की निबंधना में कवि ने विशेष रुचि दिखाई है। बड़ी कुशलता के साथ उनका सन्निवेश किया है, उन्हें इस विधान में पूर्ण सफलता मिली है। अलंकारों की सुन्दर योजना से उनकी कविता का कला-पक्ष निस्सन्देह निखर आया है।