रसखान को रस की खान क्यों कहा गया है ?
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रसखान का जन्म सन् १५३३ से १५५८ के बीच दिल्ली के समीप पिहानी में हुआ था। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है। मथुरा में इनकी समाधि है। उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, 'इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए' उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। कहा जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी में किया। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन् 1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई। सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध कृतियाँ हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इनके काव्य में भक्ति और श्रंगार रस दोनो मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रध्दावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि।रसखान ने दोहे, सवैये और फाग गाये हैं। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। अपने आराध्य के प्रति रसखान का लगाव इतना है कि सभी जन्मों और योनियों में वे उनके समीप ही रहना चाहते हैं