रसवंती किसे कहा गया है
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Explanation:
1. रसवन्ती
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !
लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात
पलातक शिशु-सा मैं अनजान,
कर्म के कोलाहल से दूर
फिरा गाता फूलों के गान।
कोकिलों ने सिखलाया कभी
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात
कभी बाड़व की दाहक आग।
पत्तियों फूलों की सुकुमार
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कभी कलिकाओं के मुख देख
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
तॄणों में कभी खोजता फिरा
विकल मानवता का कल्याण,
बैठ खण्डहर मे करता रहा
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.
श्रवण कर चलदल-सा उर फटा
दलित देशों का हाहाकार,
देखकर सिरपर मारा हाथ
सभ्यता का जलता श्रृंगार.
शाप का अधिकारी यह विश्व
किरीचों का जिसको अभिमान
दोन-दलितों के क्रन्दन बीच
आज क्या डूब गए भगवान ?
तप्त मरु के सिंचन के हेतु
टटोला निज उर का रस-कोष
ओस के पीने से पर हाय
विश्व क्या पा सकता सन्तोष ?
बिन्दु या सिन्धु चाहिए उसे
हमें तो निज पर ही अधिकार
मुरलिका के रन्धों में लिये
चला निज प्राणों का उपहार
साधना की ज्वाला जब बढ़ी
गया वासव का आसन बोल
पूछने लगी मुझे पथ रोक
ठगिनि-माया जीवन का मोल
प्रिये रसवन्ती ! जग है कठिन
मनुज दुर्बल, मानव लाचार
परीक्षा को आया जब विश्व
गया जीवन की बाजी हार
द्वार कारा का बीचोबीच
इधर मैं बन्दी, तुम उस ओर
प्रिये ! तो भी ममता से हाय
खींचती क्यों मेरा पट-छोर ?
प्रणय उससे कैसा, यह जो कि
गया पहली ही बाजी हार ?
चीखती क्यों ले-लेकर नाम
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ?
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !
दुखों की सुख में स्मृतियाँ मधुर
सुखों की दुख में स्मृतियाँ शूल
विरह में किन्तु, मिलन की याद
नहीं मानव-मन सकता भूल
याद है वह पहला मधुमास
कोरकों में जब भरा पराग
शिराओं में जब तपने लगी
अर्द्ध-परिचित-सो मीठी आग
एक क्षण कोलाहल के बीच
पुलक की शीतलता में मौन
सोचने लगा ह्रदय में आज
हुआ नूपुर मुखरित यह कौन ?
खोल दृग देखा प्राची ओर
अलक्तक-चरणों का श्रृंगार
तुम्हारा नव उद्वेलित रूप
व्योम में उड़ता कुन्तल-भार
उठा मायाविनि ! अन्तर बीच
कल्पना का कल्लोलित ज्वार
लगा सद्यस्फुट पाटल सदृश
दृगों को मोहक यह संसार
लगी पृथ्वी आँखों को देवि !
सिक्त सरसीरुह-सी अम्लान
कूल पर खडी हुई-सी निकल
सिन्धु में करके सद्यस्नान
ग्रहण कर उस दिन ही सुकुमारि
तुम्हारे स्वर्णांचल का छोर
खोजने तृषितों का कल्याण
चला मैं अमृत-देश की ओर
गिरे थे जहाँ धर्म के बीज
उगा था जहाँ कभी भी ज्ञान
वहाँ की मिट्टी पर हम चले
प्रणति में झुकते एक समान
पन्थ में दूर्वा से सज तुम्हें
पिन्हाया गंगा का जलहार
शीश पर हिम-किरीट रख किया
देश की मिट्टी से श्रृंगार
विमूर्च्छित हुई तपोवन बीच
कराया निर्झर का जल पान
बोधि-तरु की छाया में बांह
हुई शुचि बनकर तब उपधान
धरा का जिस दिन सौरभ-कोष
खोलने लगी प्रथम बरसात
न जाने क्यों नालन्दा बीच
रहे रोते हम सारी रात
प्रेम-बिरवा आंगन में रोप
रहे थे हम जब हिल-मिल सींच
अचानक कुटिल नियति ने मुझे
लिया उस दिव्य लोक से खींच
अचानक हम दोनों के बीच
पड़ा आकर माया व्यवधान
रचा मेरे बन्धन के हेतु
भीषिकाओं ने दुर्ग महान
प्रकम्पित कर सारा ब्रह्माण्ड
किया प्राणों ने जब चीत्कार
बिहँसने लगा व्यंग्य से विश्व
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !
बन्धनों से होकर भयभीत
किन्तु, क्या हार सका अनुराग ?
मानकर किस बन्धन का दर्प
छोड़ सकती ज्वाला को आग ?
पुष्प का सौरभ से सम्बन्ध
छुड़ा सकता कोई व्यवधान ?
कौन सत्ता वह जिसको देख
रश्मि को तज सकता दिनमान ?
आपदाएँ सौ बन्धन डाल
प्रेम का कर सकतीं अपमान ?
यहाँ शापित यक्षों के रोज
उड़ा करते अम्बर में गान
उठेगा व्याकुल दुर्दमनीय
क्षुब्ध होकर जब पारावार
रुद्ध होगा कैसे हे देवि !
धृष्ट शैलों से कण्ठ-द्वार ?
फोड़ दूंगा माया के दुर्ग
तोड़ दूंगा यह वज्र-कपाट;
व्योम में गाने को जिस रोज
बुलायेगा निर्बन्ध विराट
मिटा दूंगा ब्रह्मा का लेख
फिरा लूँगा खोया निज दांव
चलूँगा निज बल से नि:शंक
नियति के सिर पर देकर पाँव
तरंगित सुषमाओं पर खेल
करूंगा देवि ! तुम्हारा ध्यान
दुखों की जलधारा में भींग
तुम्हारा ही गाऊँगा गान
सजेगा जिस दिन उत्सव-हेतु
देश-माता का तोरण-द्वार
करेंगे हम ले मंगल-शंख
उदय का स्वागत-मंत्रोंच्चार
निखिल जन्मों में जिस पर देवि !
चढाए हमने तन, मन, प्राण
सुनेंगे हूति हेतु इस बार
एक दिन फिर उसका आह्वान
काल-नौका पर हो आरूढ़
चलेंगे जिस दिन प्रभु के देश
विश्व की सीमा पर सुकुमारि
करेंगे हम तुम संग प्रवेश
चकित होंगे सुनकर गन्धर्व
तुम्हारी दूरागत मृदु तान
श्रवण कर नूपुर की झंकार
भग्न होगा रम्भा का मान
'स्वर्ग से भी सुन्दर यह कौन ?'
करेंगे सुर जब चकित पुकार
कहूँगा मैं दिव से भी मधुर
विश्व की रसवन्ती सुकुमार