rashtra ekta ke maarg mein baadhayein or uske hal
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स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात भारत को अनके समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है | इन समस्याओं में सबसे गंभीर समस्या राष्ट्रीय एकता की समस्या है | इस समस्या को सुलझाने के लिए हमें उन सभी बाधाओं को दूर करना आवशयक है जो इसके रस्ते में वज्र के समान पड़ी हुई है | मुख्य बाधायें निम्नलिखित है –
(1) जातिवाद- भारत की राष्ट्रिय एकता के मार्ग में जातिवाद प्रमुख बाधा है | यहाँ के निवासी विभिन्न धर्मों तथा जातियों में विश्वास करते हैं जिसके कारण इन सब में आपसी मतभेद पाये जाते हैं | प्रत्येक जाति अथवा धर्म व्यक्ति दूसरे धर्म अथवा जाति के व्यक्ति से अपने आप को ऊंचा समझता है | इससे प्रत्येक व्यक्ति में एक-दूसरे के प्रति प्रथकता की भावना इतना उग्र रूप धारण कर चुकी है कि इस संकुचित भावना को त्याग कर वह राष्ट्रीय हित के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने में असमर्थ है | हम देखते हैं कि चुनाव के समय भी प्रत्येक व्यक्ति अपना मत प्रतयाशी की योग्यता को दृष्टि में रखकर नहीं अपितु धर्म तथा जाती के आधार पर देता है | यही नहीं चुनाव के पश्चात भी जब राजनीतिक सत्ता किसी अमुक वर्ग के हाथ में आ जाती है तो वह वर्ग अपने ही धर्म अथवा जाति के लोगों को अधिक से अह्दिक लाभ पहुँचाने का प्रयास करता है | जिस राष्ट्र में धर्म तथा जाती का इतना पक्षपात पाया जाता हो, वहाँ रष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित करना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है |
(2) साम्प्रदायिकता- साम्प्रदायिकता भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में महान बाधा है | हमारे देश में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आदि अनके सम्प्रदाय पाये जाते हैं | यही नहीं, इन सम्प्रदायों में भी अनके सम्प्रदाय हैं | उदाहरण के लिए, अकेला हिन्दू धर्म ही अनके सम्प्रदायों में बंटा हुआ है | इन सभी सम्प्रदायों में आपसी विरोध तथा घ्रणा की भावना इस सीमा तक पहुँच गई है कि एक सम्प्रदाय के व्यक्ति दूसरे सम्प्रदाय को एक आँख से नही देख सकते | प्राय: सभी सम्प्रदाय राष्ट्रीय हितों को अपेक्षा केवल अपने-अपने साम्प्रदायिक हितों को पूरा करने में ही जूटे हुए हैं | इससे राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गई है |
(3) प्रान्तीयता – भारत की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में प्रान्तीयता भी एक बहुत बड़ी बाधा है | ध्यान देने की बात है कि हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ‘ राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने प्रशासन तथा जनता की विभिन्न सुविधाओं को दृष्टि में रखते हुए देश को चौदह राज्यों में विभाजित किया जाता था | इस विभाजन के आज विघटनकारी परिणाम निकल रहे हैं | हम देखते हैं कि अब भी जहाँ एक ओर भाषा के आधार पर नये –नये राज्यों की मांग की जा रही है वहाँ दूसरी ओर प्रत्येक राज्य यह चाहता है उसका केन्द्रीय सरकार पर सिक्का जम जाये | इस संकुचित प्रान्तीयता की भावना के कारण देश के विभिन्न राज्यों में परस्पर वैमन्स्य बढ़ता जा रहा है | इससे राष्ट्रीयता एकता एक जटिल समस्या बन गई है |
(4) राजनीतिक दल- जनतंत्र में राजनीतिक चेतना तथा जनमत के निर्माण हेतु राजनीतिक दलों का होना परम आवशयक है | इसीलिए हमारे देश में भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विभिन्न दलों का निर्माण हुआ है | खेद का विषय है कि इन राजनीतिक दलों में से कुछ ही ऐसे डाल है जो सच्चे धर्म में राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होते हुए अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न कर रहे हैं | अधिकांश दल तो केवल जाति धर्म तथा सम्प्रदाय एवं क्षेत्र के आधार पर ही जनता से वोट मांग कर चुनाव लड़ते हैं तथा राष्ट्र हित की उपेक्षा राष्ट्रीय विघटन के कार्यों में जुटे रहते हैं | जब तक देश में ऐसे विघटनकारी राजनीतिक दलों का अस्तित्व बना रहेगा तब तक जनता राजनीतिक दलदल में फंसी रहेगी | इससे राष्ट्रीय एकता की समस्या बनी ही रहेगी |
(5) विचित्र भाषायें- हमारे देश में विभिन्न भाषायें पाई जाती है | ये सभी भाषायें की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा है | वस्तु-स्थिति यह है कि वह व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के निकट केवल भाषा के माध्यम से ही आ सकता है | अत: भारत जैसे विशाल राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रीय भाषा का होना परम आवशयक है | खेद का विषय है कि हमारे देश में भाषा के नाम पर असम, पंजाब, आन्ध्र तथा तमिलनाडु आदि राज्यों में अनके घ्रणित घटनाएँ घटी जा चुकी है तथा अब भी भाषा की समस्या खटाई में ही पड़ी है | अब समय –आ चूका है कि हम राष्ट्रीय एकता के लिए भाषा सम्बन्धी वाद-विवाद का अन्त करके सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए केवल एक ही भाषा को स्वीकार करें |
(6) सामाजिक विभिन्नता – भारत में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई तथा सिक्ख आदि विभिन्न सामाजिक वर्ग पाये जाते हैं | इन सभी सामाजिक वर्गों में आपसी घ्रणा तथा विरोध की भावना पाई जाती है | उदहारण के लिए हिन्दू समाज मुस्लिम समाज को आँखों देखने के लिए तैयार नहीं है और न ही
(1) जातिवाद- भारत की राष्ट्रिय एकता के मार्ग में जातिवाद प्रमुख बाधा है | यहाँ के निवासी विभिन्न धर्मों तथा जातियों में विश्वास करते हैं जिसके कारण इन सब में आपसी मतभेद पाये जाते हैं | प्रत्येक जाति अथवा धर्म व्यक्ति दूसरे धर्म अथवा जाति के व्यक्ति से अपने आप को ऊंचा समझता है | इससे प्रत्येक व्यक्ति में एक-दूसरे के प्रति प्रथकता की भावना इतना उग्र रूप धारण कर चुकी है कि इस संकुचित भावना को त्याग कर वह राष्ट्रीय हित के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने में असमर्थ है | हम देखते हैं कि चुनाव के समय भी प्रत्येक व्यक्ति अपना मत प्रतयाशी की योग्यता को दृष्टि में रखकर नहीं अपितु धर्म तथा जाती के आधार पर देता है | यही नहीं चुनाव के पश्चात भी जब राजनीतिक सत्ता किसी अमुक वर्ग के हाथ में आ जाती है तो वह वर्ग अपने ही धर्म अथवा जाति के लोगों को अधिक से अह्दिक लाभ पहुँचाने का प्रयास करता है | जिस राष्ट्र में धर्म तथा जाती का इतना पक्षपात पाया जाता हो, वहाँ रष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित करना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है |
(2) साम्प्रदायिकता- साम्प्रदायिकता भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में महान बाधा है | हमारे देश में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आदि अनके सम्प्रदाय पाये जाते हैं | यही नहीं, इन सम्प्रदायों में भी अनके सम्प्रदाय हैं | उदाहरण के लिए, अकेला हिन्दू धर्म ही अनके सम्प्रदायों में बंटा हुआ है | इन सभी सम्प्रदायों में आपसी विरोध तथा घ्रणा की भावना इस सीमा तक पहुँच गई है कि एक सम्प्रदाय के व्यक्ति दूसरे सम्प्रदाय को एक आँख से नही देख सकते | प्राय: सभी सम्प्रदाय राष्ट्रीय हितों को अपेक्षा केवल अपने-अपने साम्प्रदायिक हितों को पूरा करने में ही जूटे हुए हैं | इससे राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गई है |
(3) प्रान्तीयता – भारत की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में प्रान्तीयता भी एक बहुत बड़ी बाधा है | ध्यान देने की बात है कि हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ‘ राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने प्रशासन तथा जनता की विभिन्न सुविधाओं को दृष्टि में रखते हुए देश को चौदह राज्यों में विभाजित किया जाता था | इस विभाजन के आज विघटनकारी परिणाम निकल रहे हैं | हम देखते हैं कि अब भी जहाँ एक ओर भाषा के आधार पर नये –नये राज्यों की मांग की जा रही है वहाँ दूसरी ओर प्रत्येक राज्य यह चाहता है उसका केन्द्रीय सरकार पर सिक्का जम जाये | इस संकुचित प्रान्तीयता की भावना के कारण देश के विभिन्न राज्यों में परस्पर वैमन्स्य बढ़ता जा रहा है | इससे राष्ट्रीयता एकता एक जटिल समस्या बन गई है |
(4) राजनीतिक दल- जनतंत्र में राजनीतिक चेतना तथा जनमत के निर्माण हेतु राजनीतिक दलों का होना परम आवशयक है | इसीलिए हमारे देश में भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विभिन्न दलों का निर्माण हुआ है | खेद का विषय है कि इन राजनीतिक दलों में से कुछ ही ऐसे डाल है जो सच्चे धर्म में राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होते हुए अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न कर रहे हैं | अधिकांश दल तो केवल जाति धर्म तथा सम्प्रदाय एवं क्षेत्र के आधार पर ही जनता से वोट मांग कर चुनाव लड़ते हैं तथा राष्ट्र हित की उपेक्षा राष्ट्रीय विघटन के कार्यों में जुटे रहते हैं | जब तक देश में ऐसे विघटनकारी राजनीतिक दलों का अस्तित्व बना रहेगा तब तक जनता राजनीतिक दलदल में फंसी रहेगी | इससे राष्ट्रीय एकता की समस्या बनी ही रहेगी |
(5) विचित्र भाषायें- हमारे देश में विभिन्न भाषायें पाई जाती है | ये सभी भाषायें की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा है | वस्तु-स्थिति यह है कि वह व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के निकट केवल भाषा के माध्यम से ही आ सकता है | अत: भारत जैसे विशाल राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रीय भाषा का होना परम आवशयक है | खेद का विषय है कि हमारे देश में भाषा के नाम पर असम, पंजाब, आन्ध्र तथा तमिलनाडु आदि राज्यों में अनके घ्रणित घटनाएँ घटी जा चुकी है तथा अब भी भाषा की समस्या खटाई में ही पड़ी है | अब समय –आ चूका है कि हम राष्ट्रीय एकता के लिए भाषा सम्बन्धी वाद-विवाद का अन्त करके सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए केवल एक ही भाषा को स्वीकार करें |
(6) सामाजिक विभिन्नता – भारत में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई तथा सिक्ख आदि विभिन्न सामाजिक वर्ग पाये जाते हैं | इन सभी सामाजिक वर्गों में आपसी घ्रणा तथा विरोध की भावना पाई जाती है | उदहारण के लिए हिन्दू समाज मुस्लिम समाज को आँखों देखने के लिए तैयार नहीं है और न ही
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