Rashtra Nirman Mein Hindi ki Bhumika
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नई दिल्ली, 21 जून (हि.स.)। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में राष्ट्रीय कला केंद्र एवं हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी के सहयोग से 'राष्ट्र निर्माण में हिंदी की भूमिका' विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस मौके पर वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कोहली ने कहा कि मुझे गलत हिंदी सुनने से उतनी ही तकलीफ होती है जितनी कि किसी डॉक्टर के सामने मरीज को गलत दवा दिए जाने पर तकलीफ होती है। संगोष्ठी में हिंदी और मीडिया विषय पर जनसत्ता के पूर्व संपादक राहुल देव ने कहा कि हिन्दी का लचीला होना उसकी उदारता नहीं बल्कि उसकी कायरता व नपुंसकता को दर्शाता है। देश में कोई भी ऐसा अंग्रेजी भाषी पत्रकार नहीं है जो कि हिंदी में बोलता हो लेकिन हिंदी भाषी पत्रकार हिंदी में बोलते हुए अंग्रेजी की यात्रा ज़रूर करने लगते हैं। हिंदी मीडिया कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी का दैनिक हत्यारा बन गया है। हिंदी पत्रकारों को ही हिंदी को लेकर मन में लज्जा है। उन्होंने कहा कि अतीत के पत्र, पत्रिकाएं और पत्रकारिता का गुणगान गान बंद कर दीजिए क्योंकि आज़ादी के बाद अब नई विचारधारा का देश है, नई सोच के लोग हैं। आगे आने वाले 10-15 साल ही बस हिंदी के विस्तार के हैं।
अतः भविष्य में हिंदी की क्या भूमिका होगी हमें इस पर बहुत गहरा चिंतन करने की आवश्यकता है। संगोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार सुधीश पचौरी ने सवाल करते हुए कहा कि देश का हिंदी विभाग हिंदी के फैलाव के लिए कितना काम कर रहा है? कुछ पुरस्कार देकर, शालें-ओढ़ाकर बात ख़त्म नहीं हो जाती है| यह बात हिंदी विभाग व हिंदी प्रचार-प्रसार में लगी संस्थाओं को ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने आलोचना करते हुए कहा कि सबसे दुःखद तो यह है कि हिंदी के समाचार पत्रों में अंग्रेज़ी कॉलमिस्ट के लेख छपते हैं और हिंदी पाठक को पता ही नहीं होता कि वो लेख अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित हैं।
अंग्रेजी भाषा आदेशात्मकता है क्योंकि वह दुनिया भर में राज़ करती आई है| इसलिए वह अभी तक चल रही है लेकिन हिंदी पूरे भारत देश में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बोली भी जाती है और समझी भी जाती है| इसलिए हम पत्रकारों का कर्तव्य बनता है कि हिंदी को भी प्रभावी भाषा बनाने में जुट जाना चाहिए। हिंदी और व्यवहारिक प्रयोग विषय पर गिरीश्वर मिश्र ने अपने वक्तव्य में कहा कि हमारे ज्ञान के सभी विषय आयातित हैं। हम ज्ञान-विज्ञान की दिशा में पिछलग्गू बने हुए हैं। हमारे देश में पश्चिमीकरण का इतना ढिंढोरा पीटा गया कि हम अपने ज्ञान, भाषा व संस्कृति के मूल भाव से बहुत दूर हो गए हैं।
भाषा जहां जोड़ सकती है, वहीं तोड़ भी सकती है। अब हमें हिंदी भाषा से ही देश को जोड़ना होगा ऐसी प्रतिज्ञा सभी को शिक्षकों व पत्रकारों को करनी चाहिए। इन विचारों को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने कहा कि भाषा के इतिहास में असल बात यह है कि किसी भी भाषा को बोलने वाले उसको समझने वाले उस भाषा को कैसे देखते हैं। किसी भी भाषा को बोलने वालों की आर्थिक स्थिति उसकी राजनीतिक स्थिति उसकी सांसरिक स्थिति से ही उसका भविष्य तय होता है।
फिल्मों की हिंदी ने जो संस्कृति फैलाई वही आज हमारे घरों की भाषा है। उह स्वाधीनता के बाद की भाषा है। संगोष्ठी में अशोक चक्रधर, अतुल कोठारी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, चित्रा मुद्गल, निधि कुलपति एवं पत्रकार वेद प्रताप वैदिक ने भाग लिया। इसके अलावा देश के विभिन्न राज्यों के शिक्षक- शिक्षिकाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज की।