rashtranirman oor nari speech in hindi
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नारी हो या पुरुष, राष्ट्र और उससे संबंद्ध प्रत्येक जन का आपस में गहरा संबंध होता है। राष्ट्र एक व्यापक भावनात्मक सत्ता का नाम है। वह मानव-प्राणियों के अस्तित्व के कारण ही अपना सूक्ष्म या अमूर्त स्वरूपाकार ग्रहण किया करता है। राष्ट्र-जन भी उसी के कारण सुरक्षित रहा करते हैं। अत: जब हम मानव-प्राणियों की बात कहते हैं, तो पुरुष के साथ नारी का अस्तित्व स्वत: ही साकार हो उठता है। नारी का मूल रूप जननी-यानी धरती का है, जो नर-मादा सभी प्रकार की फसलों को न केवल जन्म देती है, बल्कि अपने अंतर के अमृत से पाल-पोसकर बड़ा भी करती है, सुखी-समृद्ध भी बनाती है। अत: नारी सत्ता के पूर्ण अस्तित्व की सामान्य स्वीकृति और सहयोग के बिना किसी राष्ट्र के नव-निर्माण की तो क्या, उसके मूल अस्तित्व की कल्पना और रक्षा तक कर पाना संभव नहीं है।
परंपरा के अनुरूप नारी का स्थान यदि घर-परिवार तक ही सीमित मान लिया जाए, तब भी वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह इसलिए कि देश, समाज और राष्ट्र आदि सभी की सत्ता का उदमग घर-परिवारों के साकार अस्तित्व से ही हुआ करता है। वह नींव है, बुनियाद है, जिसकी उपेक्षा एंव अभाव में किसी भी प्रकार के निर्माण की बात तक नहीं सोची जा सकती। गृहस्वामिनी के क्षेत्र एंव अधिकार तक सीमित रहकर भी यदि नारी हमें सृजनात्मक लालन-पालन एंव दृष्टिकोण दे पाएगी, तभी तो देशीयता, जातीयता और राष्ट्रीयता का भाव जाग सकेगा कि जो हमेशा युगानुकूल नव-निर्माण का ज्वलंत प्रश्न बना रहा करता है। घर में रहकर नारी ही पुरुष और अन्य सभी सदस्यों को वह संस्कार के भाव और विचार, वह प्रेरणा और सक्रियता प्रदान कर सकती है कि जो घर से बाहर जीवन, समाज एंव राष्ट्र-निर्माण के लिए परम आवश्यक ही नहीं, बुनियादी शर्त है। अत: नव-निर्माण द्वारा प्रगति एंव समृद्धि का अकांक्षा रखने वाला कोई भी व्यक्ति और राष्ट्र नारी की उपेक्षा नहीं कर सकता। मध्यकालीन विषम परिस्थितियों के कारण और प्रभाव से भारत ने ऐसा किया, तो आज तक उस सबका दुष्परिणाम भी पराधीनता, अव्यवस्था, अराजकता और पिछड़ेपन के रूप में भोगा है। आज भी व्यवहार के स्तर पर नारी के प्रति पुरुष समाज के दृष्टिकोण में कोई विशेष अंतर नहीं आ पाया है, इसी कारण हमारे घर-परिवार विघटित होकर बिखर रहे हैं।
कहने को आज का युग विचार, भाव और क्रिया आदि सभी स्तरों पर आमूल-चूल परिवर्तित हो चुका है। पुरानी मान्यतांए, मध्यकालीन मान-मूल्य और नैतिकतांए आज व्यर्थ हो चुकी हैं। प्रतिदिन, प्रति क्षण और प्रति पग नवमूल्यों का सृजन हो रहा है। फिर आज विश्व के किसी भी देश में नारी का संसार केवल घर-परिवार तक सीमित नहीं रह गया। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय होकर वह अपनी अदभुत प्रतिभा और कार्यक्षमता का परिचय दे रही है। स्कूल-टैक्सी-बस-ड्राइवरी से लेकर वायुयान उड़ाने तक का कठिन उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य वह निर्भय होकर कर रही है। अत: अब नारी के प्रति मध्यकालीन कवियों वाला वह दृष्टिकोण नहीं चल सकता कि जिसके अनुसार उसे खुला नहीं छोडऩा चाहिए, ताकि वह इत्र की तरह कहीं उड़ न जाए। या उसे खुले नरम-गरम वातावरण में नहीं जाने देना चाहिए, ताकि माखन की टिकिया के समान वह गर्मी पाकर पिघल और सर्दी पाकर जम न जाए। भीषण तपते रेगिस्तानों और हिमालय के उच्चतम शिखरों की तूफानी ठंडक में भी वह अपने-आपको भरा-पूरा रखकर पुरुष से भी कहीं अधिक शक्तिशाली, कार्य-कुशल सिद्ध कर चुकी है। अपनी इन गतिविधियों से वह निश्चिय ही राष्ट्र की प्रगति के कदमों को आगे बढ़ा रही है। फिर अब तो उसके कदमों के माध्यम से राष्ट्र के कदम दक्षिण धु्रव की सघन एंव पथरीली शीतलता तक भी स्पर्श कर आए हैं। नारी के कोमल हाथ सभी प्रकार के उद्योग-धंधे भी कुशलता से चला रहे हैं। फिर उसे पुरुष से कम क्योंकर कहा और समझा जा सकता है?
हमारे चारों ओर के जीवन में नारी-सक्रियता से स्पष्ट है कि आज की नारी बीते कल वानी नहीं, बल्कि आने वाले कल की उन्नतम संभावना है। वह प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढक़र राष्ट्र-निर्माण में सहयोग दे रही है। फिर भी खेद के साथ यह स्वीकारना ही पड़ता है कि भारतीय पुरुष समाज का व्यवहार के स्तर पर नारी के प्रति दृष्टिकोण आज भी मध्ययुगीन एंव सामंती ही हैं। इसे हम संक्रमण काल की मानसिकता कह सकते हैं, किंतु इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। उपेक्षा करना उचित भी नहीं। पुरुष समाज को इस धंधे एंव संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकल नारी के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। उसे भोज्या से बहुत अधिक मानना होगा। उससे सम्मानपूर्वक सहयोग मांगना होगा। उसकी एकाग्रता के गुण से संयत कार्यक्षमता का सर्वत्र उचित उपयोग करना होगा। ऐसा करके ही हम उसे राष्ट्र-निर्माण में सहयोगिनी बना सकते हैं। राष्ट्र का चरम विकास भी तभी संभव हो सकेगा, जब नारी-शक्ति का समूचित उपयोग कर पाना हम सीख लेंगे। उसे अब किसी भी प्रकार के बंधन में बांध रख पाना संभव नहीं। अत: उसके लिए सहयोग-सहकार के द्वारा उन्मुक्त होने चाहिए। तभी वह अपनी अदभुत अंतरंग शक्तियों का वास्तविक परिचय दे सकेगी।