Hindi, asked by royj5410, 9 months ago

raskhan ki kirisnbhkti ka sbrup sodahrn kre​

Answers

Answered by leelamewara125
0

भक्ति का स्वरूप

भक्तिशास्त्र के आचार्यों ने भक्ति को प्रेमस्वरूप बतलाया है।

शांडिल्य ने अपने भक्तिसूत्र में भक्ति की परिभाषा देते हुए कहा है कि ईश्वर में की गई परानुरक्ति भक्ति है।[6]

नारद ने भी भगवान के प्रति किए गए परम प्रेम को भक्ति कहा है।[7]

मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति का लक्षण करते हुए बतलाया है कि भगवद्धर्म के कारण द्रुत चित्त की परमेश्वर के प्रति धारावाहिक वृत्ति को भक्ति कहते हैं।[8]

पुराणों आदि में भी इसी प्रकार की भक्ति का निरूपण किया गया है। विष्णु पुराण में भक्त ने भगवान से प्रार्थना की है- 'हे भगवान! जिस प्रकार युवतियों का मन युवकों में और युवकों का मन युवतियों में रमण करता है, उसी प्रकार मेरा मन तुममें रमण करे।'[9] *इसी तरह की प्रार्थना तुलसीदास ने भी भगवान राम से की है- 'हे रघुनाथ राम ! जैसे कामियों को कामिनी प्रिय होती है, जैसे लोभियों को धन प्रिय होता है, वैसे ही तुम मुझे प्रिय लगो।'[10] भक्तों ने लौकिक जीवन से इस प्रकार की उपमाएं भगवान के प्रति प्रेम की अतिशय आसक्ति सूचित करने के लिए दी हैं। रसखान भी परमप्रेम को भक्ति मानते हैं। प्रेम की अतिशयता और अनंयता का प्रतिपादन करने के लिए भक्तों ने चातक का आदर्श उपस्थित किया है। रसखान ने भी इस आदर्श में अपनी आस्था प्रकट की है-

बिमल सरल रसखानि मिलि भई सकल रसखानि।

सोई नव रसखानि कौं, चित चातक रसखानि॥[11]

संसार के अन्य लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार इन्द्र, सूर्य, गणेश आदि देवताओं की उपासना करते हैं। उनकी भक्ति करके अपने अभीष्ट फलों की प्राप्ति करते हैं। परन्तु रसखान की अनुरक्ति एकमात्र श्रीकृष्ण में ही है। उनका दृष्टिकोण उदार है। उनके मन में विभिन्न प्रकार के देवों और देवियों के भक्ति के विषय में कोई विरोधभाव नहीं है। वे दूसरों की निंदा नहीं करते। दूसरे लोग उन्हें भजना चाहते हैं तो भजें। रसखान की दृष्टि में भगवान श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं। वे अपने कृष्ण को चाहते हैं। उन्हें त्रिलोक की चिंता नहीं—

सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस घनेस महेस मनावौ।

कोऊ भवानी भजौ मन की सब आस सबै बिधि जाई पुरावौ।

कोऊ रमा भजि लेहु महाधन कोउ कहूँ मनबाँदित पावौ।

पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नसावौं।[12]

भगवान के प्रति परम प्रेम का उदय होने पर भक्त की सारी कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेंद्रियां, मन और प्राण सब ईश्वर निष्ठ हो जाते हैं। उसे इन सबकी सार्थकता केवल इस बात में दिखाई देती है कि ये सब अपना उपयोग केवल भगवान की महिमा के कीर्तन, श्रवण आदि में करें। रसखान का मत है कि रसखानि वही है जो रसखानि श्रीकृष्ण में परम अनुराग रखे-

बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।

हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।

जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।

त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सों है रसखानि ॥[13]

इस ईश्वर प्रेम की उपलब्धि अपने में इतनी ऊँची है कि इसकी तुलना में संसार के सारे ऐश्वर्य तुच्छ दिखाई पड़ते हैं-

कंचन मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाई सदा झलकैयत।

प्रात ही ते सगरी नगरी नग मोतिन ही को तुलानि तुलैयत।

जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मघवा ललचैयत।

ऐसे भए तो कहा रसखानि जो साँवरे ग्वार सो नेह न लैयत॥[14]

सभी प्रकार के प्रेम की (चाहे वह लौकिक हो या अलौकिक) यह विशेषता है कि प्रेमी केवल अपने प्रेमपात्र से ही प्रेम नहीं करता बल्कि उस प्रेमपात्र से संबंध रखने वाली प्रत्येक वस्तु उसे अत्यन्त प्रिय लगने लगती है। रसखान की भी यही दशा है। इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण वे कृष्ण की लकुटी और कामरी पर तीनों लोकों का राज्य त्यागने को तैयार हैं, नंद की गायों को चराने में वे आठों सिद्धियों और नवों निधियों के सुख को भुला सकते हैं, ब्रज के वनों एवं उपवनों पर सोने के करोड़ों महल निछावर करने को प्रस्तुत हैं-

वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहू पुर को ताजि डारौं।

आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।

ए रसखानि जबै इन नैनन तैं ब्रज के बन बाग़ तड़ाग निहारौं।

कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं॥[15]

Similar questions