Ritu Parivartan samasya ke samadhan
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ऋतु परिवर्तन से गंभीर समस्याएं उत्पन्न होंगी जिनका समाधान सभी देशों को मिल कर करना होगा। वर्षों से, पर्यावरण समस्याओं पर चर्चाओं के लिए अनेक सम्मेलन आयोजित किए गए हैं एवं अनेक समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए हैं। इस प्रक्रिया की शुरूआत 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन से हुई लेकिन ऋतु परिवर्तन पर वार्तालाप का आरंभ 1990 में हुआ। इन वार्तालापों का परिणाम 1972 में ऋतु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र प्राधार प्रतिज्ञा (United Nations Framework Convention on Climate Change) को अंगीकार करने के रूप में हुआ।
चूँकि मानवीय क्रिया-कलापों का जलवायु पर काफी गहरा प्रभाव पड़ता है, अतः काफी समाधान हमारे अपने हाथों में है। हम जीवाश्म इंधन के उपयोग में कटौती कर सकते हैं, उपभोक्तावाद को कम कर सकते हैं, वन-विनाश को रोक सकते हैं एवं पर्यावरणभिमुख कृषि उपायों के उपयोग को बढ़ा सकते हैं।
ऊर्जा क्षेत्र में, उत्सर्जन कम किया जा सकता है, यदि ऊर्जा की मांग कम की जाए और यदि हम उर्जा के ऐसे परिष्कृत स्रोत अपनाएं जिनसे कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन नहीं होता। इनमें सौर, वायु, भूताप एवं अणु उर्जा शामिल है।
अनेक देशों ने कोयले का उपयोग बंद कर दिया है एवं उर्जा के परिष्कृत रूप को अपनाया है। ऊर्जा दक्षता एवं वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के विकास में जापान विश्व में अग्रणी है।
उच्च तकनीकों एवं ईंधन पर चलने वाले वाहनों का परीक्षण किया जा रहा है एवं परिवहन क्षेत्र में कड़े उत्सर्जन नियम अपनाए जा रहे हैं। कुछ देशों ने उद्योगों पर जुर्माना लगाना आरंभ कर दिया है यानि प्रदूषणकारी उद्योगों को वहां की जनता को जुर्माना देना पड़ता है।
विश्व भर में सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वन क्षेत्र बरकरार रहे क्योंकि पौधे अपने विकास के लिए कार्बन डाइआक्साइड का उपयोग करते हैं एवं इस प्रकार इसे वातावरण से हटाने में मदद करते हैं। इसीलिए वनों को कार्बन डाइआक्साइड की ‘नली’ कहा जाता है। यदि वनों की कटाई की जाती है तो अविलंब पौधे लगाए जाने चाहिए। बरसाती जमीन एक अन्य पारिस्थिक तंत्र है जो पारिस्थतिक संतुलन बनाए रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका द्वारा पर्यावरण को स्थिर बनाए रखती है। इन क्षेत्रों के संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
जैव-तकनीकी का उपयोग फसलों की जलीय आवश्यकता को कम करने, फसल उत्पादन बढ़ाने एवं उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग कम करने के लिए किया जा सकता है। प्रयोगशालाओं में धान की ऐसी विशेष किस्मों का विकास किया जा रहा है जो कम जल में भी विकास कर सकती है एवं जिसके कारण मिथेन का कम उत्सर्जन होता है।