Role of people in environment conservation article in hindi
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विश्व में जहाँ तक जैव भंडार का प्रश्न है इसका अनुमान लगा पाना अत्यंत कठिन है। आज कितनी प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं या हो रही हैं यह भी कहना कठिन है। कई प्रजातियाँ तो उसकी खोज होने से पहले लुप्त हो चुकी हैं ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी की सम्पूर्ण जैव विविधता का एक चौथाई भाग आने वाले 20-30 वर्षों में विलुप्त होने की सम्भावना है। इस प्रकार उष्ण कटिबन्धीय वन पृथ्वी के 7 प्रतिशत भू-भाग में फैला हुआ है परन्तु विश्व की आधे से अधिक प्रजातियाँ इन्हीं क्षेत्रों में मिलती हैं। एक अनुमान के अनुसार 2020 तक इन वनों के विनाश से 5-15 प्रतिशत प्रजातियाँ या 15,000-500,000 प्रजातियाँ प्रतिवर्ष या 40-140 प्रजातियाँ प्रतिदिन लुप्त होंगी। विश्व संरक्षण एवं अनुमापन केन्द्र कनाडा के अनुसार करीब 22,000 पादप तथा जीव-जन्तु वास्तव में विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं। जैव विविधता में कमी का मुख्य कारण मानवीय क्रिया-कलाप, कृत्रिम परिर्वतन एवं पर्यावरणीय विनाश है।
पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल है, जिसमें 97 प्रतिशत सामुद्रिक खारा पानी तथा 3.00 प्रतिशत स्वच्छ जल है। इसका भी 77 प्रतिशत ध्रुवों एवं हिमानी के रूप में, 22 प्रतिशत भूमिगत जल और शेष एक प्रतिशत नदियों, झीलों तथा तालाबों में पाया जाता है।
स्वच्छ जल से पादपों, जीव-जन्तुओं का पोषक होता है एवं जलीय जीव-जन्तुओं एवं पादपों का आवास बनाता है। इसके अतिरिक्त यह कृषि उद्योग तथा दैनिक जीवन में भी काम आता है। वर्तमान समय में विश्व में कृषि के लिये 68 प्रतिशत उद्योगों के लिये 24 प्रतिशत तथा दैनिक उपयोग, पशुओं, मनोरंजन तथा अन्य कार्यों में 08 प्रतिशत जल का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार भारत में 93.37 प्रतिशत कृषि, 1.08 प्रतिशत पशुओं 1.26 प्रतिशत उद्योगों और 3.13 प्रतिशत नगर पालिकाओं एवं ग्रामीण जल आपूर्ति के लिये किया जाता है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संस्थान नागपुर के अनुसार देश का 80 प्रतिशत जल पीने लायक नहीं है। इसी प्रकार इ.पी.ए. अमेरिका के अनुसार वहाँ के पेयजल में 700 घुलित रसायन मिलते हैं जिनमें 129 रसायन हानिकारक हैं। समुद्री, भूमिगत तथा स्वच्छ जल के प्रदूषण का प्रमुख स्रोत दैनिक एवं औद्योगिक उपयोग के बाद निकलने वाला अपशिष्ट जल है। इस अपशिष्ट जल की मात्रा तथा प्रकृति वहाँ की जनसंख्या के घनत्व, जीवन स्तर औद्योगीकरण तथा उद्योगों के प्रकार पर निर्भर करती है। ऐसा अनुमान है कि विश्व में लगभग 300 अरब घन मीटर अपशिष्ट जल समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है।
मानव अधिवास
प्राचीन काल में हमारे देश में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल, तक्षशिला, पाटलीपुत्र एवं नालन्दा जैसे अद्वितीय शहर हुए जिनकी कला एवं गुणवत्ता विश्व के अन्य शहर यथा काहिरा, रोम, कान-स्टेटिनोपोल से कम नहीं थे। प्रारम्भ से ही हमारे यहाँ पर्यावरण को महत्त्वपूर्ण माना गया है। दिन का प्रारम्भ सूर्य आराधना से शुरू होता है जोकि विश्व में जीवन का प्रमुख आधार है देश में नदियों को माता तथा हिमालय पर्वत को देवता तथा वनों को भगवान शिव की जटायें मानकर पूजा जाता है। इसी प्रकार किसी भी नवनिर्माण से पूर्व धर्म-शास्त्रों के अनुसार शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन किया जाता है।
मानव का आवासीय पर्यावरण गाँव एवं शहर दोनों है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिये रहने योग्य उचित आवासीय व्यवस्था होना अनिवार्य है। इसके साथ पीने के लिये पानी, पशुओं के लिये आहार, मकानों में उठने-बैठने, सोने स्वच्छ हवा हेतु खिड़कियाँ दरवाजे रोशनदान, आस-पास स्वस्च्छता, आंगन में तुलसी का पेड़ तथा बाहर की ओर वृक्ष लताएं लगी होनी चाहिए। जब तक ये सभी सुविधाएँ प्रत्येक परिवार को नहीं मिलेगी तब तक परिवार में अशांति का वातावरण बना रहेगा।
बढ़ती जनसंख्या
आज देश में 30 प्रतिशत व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं जो आज की प्रमुख चुनौती है। आज आवश्यकता है कि हम किस प्रकार का विकास मार्ग एवं आदर्श चुनें कि वह पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास में सामाजिक रूप से न्याय मुक्त तथा सांस्कृतिक रूप से स्वीकार हो। गरीबी पर्यावरण के लिये एक चुनौती है परन्तु इन दोनों को हमें साथ-साथ लेकर चलना होगा क्योंकि ये दोनों सिक्के के दो पहलू हैं। बढ़ती जनसंख्या हमारे बढ़ते हुए उत्पादन को भी प्रभावित करती है। गरीब वर्ग लगभग 85 प्रतिशत अपनी आय का भोजन पर व्यय करता है। योजना आयोग द्वारा प्रस्तावित प्रत्येक मनुष्य को 2300 कैलोरी ऊर्जा भोजन से प्रतिदिन प्राप्त होना चाहिए परन्तु इन गरीबों में से 20 प्रतिशत को भी 1500 कैलोरी से अधिक का भोजन नहीं प्राप्त हो पाता।
नगरीकरण एवं औद्योगीकरण
भारतीय नगरों में देश की 27 प्रतिशत (21.7 करोड़) जनसंख्या निवास करती है। 1991 की जनगणना के अनुसार देश में 3,500 नगर हैं जिनकी आबादी 5,000 से लेकर 10 लाख के ऊपर की है। आधी नगरीय जनसंख्या 23 महानगरों तथा छठवां भाग चार वृहद शहरों यथा दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास में रहती है। ये बड़े नगरीय केन्द्र बहुत ही अमानवीय क्रियाकलापों एवं बीमारियों से ग्रसित गन्दी बस्तियों का विकास करते हैं। लगभग 27 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन-यापन कर रही हैं। महानगरों की जनसंख्या का 30-40 प्रतिशत भाग गंदी बस्तियों में रहता है, जिनमें 27 प्रतिशत को शुद्ध जल, 75 प्रतिशत को जल निकास व्यवस्था तथा बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण के शिकार हैं।
गन्दी बस्तियाँ ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों के प्रवास का प्रतिफल होता है। ऐसा अनुमान है कि लगभग 13,500 व्यक्ति प्रतिदिन ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में जाते हैं। ये प्रवासी ऐसा महसूस करते हैं कि “गाँव से गंदी बस्तियों में जाना एक समस्या नहीं बल्कि एक समाधान है,” जिसमें उन्हें सस्ते मकान, रोजगार एवं परिवहन के साधन मिल जाते ह
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