सँभलो कि सुयोग न जाए चला,
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला?
समझो जग को न निरा सपना,
पथ आप प्रशस्त करो अपना।।
अखिलेश्वर है अवलंबन को,
नर हो, न निराश करो मन को।।2।।
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ok very nice poem I like it
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हम आज भी अपने हुनर में दम रखते हैं
और तालियां बजने लगती है जब हम महफिल में कदम रखते हैं
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