साँच बराबर तप नहीं (निबंध)
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साँच बराबर तप नहीं’ अर्थात् सत्य के बराबर कोई दूसरी तपस्या नहीं है । प्रसिद्ध भक्ति मार्गी कवि कबीरदास की उपयुक्त सूक्ति पढ़ने में भले ही सहज प्रतीत होती है परंतु यह सूक्ति स्वयं में एक विस्तृत विशाल एवं गहन अर्थ संजोए हुए है ।
यदि इस सूक्ति का वास्तविक अर्थ समझ लिया जाए तो हमारे जीवन के कई संताप एवं दु:ख काफी सीमा तक कम हो सकते हैं । सत्य का स्वरूप अत्यंत विस्तृत एवं महान है । यह अटल होता है । इसका प्रारूप भूत वर्तमान तथा भविष्य तीनों ही कालों में एक समान रहता है । सत्य की महिमा सर्वोपरि है इसलिए हिंदुओं के धर्मग्रंथ ‘गीता’ एवं वेदों में ईश्वर को ‘सत्य स्वरूपा’ कहा गया है ।
परमपिता परमेश्वर के संपूर्ण स्वरूप ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में भी सत्य को प्राथमिकता दी गई है । अत: हरेक योगी साधक तपस्वी तथा आम नागरिक भी जब तक सत्य की साधना न करे वह ईश्वर के सही स्वरूप को अपने मन या चित्त में धारण नहीं कर सकता ।
हम सभी मानते हैं कि सभी मनुष्यों को सत्य बोलना चाहिए । बचपन से ही हमें यह शिक्षा प्रदान की जाती है कि झूठ बोलना पाप है । सभी धर्मग्रंथ लोगों को सत्य बोलने के लिए उतेरित करते हैं । परंतु विडंबना यह है कि हम सभी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष झूठ का सहारा लेते ही हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि यह जानते हुए कि हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए फिर भी हम सत्य पर अटल नहीं रह पाते । आखिर क्यों ? वे कौन से कारक हैं जो मनुष्य को असत्य बोलने पर विवश करते हैं । इससे पूर्व यह प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है ? अथवा सत्य का स्वरूप कैसा है ?
सत्य क्या है ? इसका उत्तर स्वयं अत्यन्त विस्तृत एवं महान है । परंतु साधारण शब्दों में ‘जो सरल अथवा विषम सभी परिस्थितियों में अटल अथवा एक रूपा हो वही सत्य है’ । साधारण मनुष्य के लिए सत्य का मार्ग अत्यंत कठिन होता है अथवा दूसरे शब्दों में, सत्य के पथ पर चलने वाला मनुष्य असाधारण होता है ।
आधुनिक युग में जहाँ मनुष्य में असंतोष एवं स्वार्थ लोलुपता चरम पर है, इन परिस्थितियों में उपर्युक्त कथन की सत्यता को और भी अधिक बल मिलता है । जब कोई मनुष्य सत्य को अपना लक्ष्य बनाता है तो आवश्यक है कि वह अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करे । यदि हम बिना हृदय को तौले ही सत्य पालन का प्रयास करेंगे तो कुंठा और हीनभावना का जन्म हो सकता है ।
सच के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के मार्ग में अनेकों मुश्किलें आती हैं । सत्य का आचरण करने वाले व्यक्ति को जीवन में अनेक कटु अनुभवों का सामना करना पड़ता है । सत्य हरिश्चंद, महात्मा गाँधी आदि व्यक्तियों का जीवन-चरित्र इसका प्रमाण है। ऐसे महान व्यक्तियों को शुरू-शुरू में सत्य के मार्ग पर चलकर अनेक कठिनाइयों से जूझना पड़ा था ।
"सांच बराबर तप नहीं"
सत्य का मार्ग कठिन होता है, लेकिन उसकी मंजिल बड़ी आरामदायक है। सत्य की परिभाषा शास्त्रों में विस्तृत रूप से की गई है। कहां गया है कि सत्य बोलने से व्यक्ति पर कोई आंच नहीं आती अर्थात उसे कोई हानि नहीं पहुंचती सत्यवादी की समाज में प्रतिष्ठा होती है। जनता उसका हृदय से अभिनंदन करती है । मृत्यु के बाद भी सत्यवादी अपनी ऐसी रूपी शरीर से जीवित रहता है।
शास्त्रों में भी सत्य के बारे में कहा गया है कि "सत्यमेव जयते ना नृतम" अर्थात सत्य की विजय होती है असत्य की नहीं, असत्यवादी जीवन में कभी प्रगति नहीं कर सकता, यदि कभी उसकी उन्नति दिखाई भी पड़ती है तो क्षणिक ही होती है। हमें सत्य और प्रिय बोलना चाहिए। हमें कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए और हमारी वाणी में कुटिलता नहीं होनी चाहिए।
सत्य बोलने से मनुष्य को अनेक लाभ हैं। ऐसी कौन सी सफलता है ऐसी कौन सी सिद्धि है जो इस शक्ति के साधन से प्राप्त नहीं होती। यह संसार संघर्ष की भूमि है या मनुष्य को अपनी उन्नति के लिए पद पर संघर्ष करना पड़ता है ऐसे जीत उसी की होती है जो सत्य के मार्ग पर चलता है।
हमारे धार्मिक ग्रंथ रामायण में सत्य की रक्षा के लिए किस तरह से पालन किया गया है यह हम सभी जानते हैं। हमारा परम कर्तव्य है कि हम भी अपने जीवन में सदा सत्य के मार्ग पर चले सत्य को ग्रहण करें, आचरण करें और सत्य बोलने से ही हमें जीवन में समृद्धि प्राप्त होगी। इसे हमारा चरित्र भी महान बनेगा। इसलिए कहा जाता है कि सांच को कभी आंच नहीं आती है।