सूफी मत के मुख्य सिद्धांत क्या थे?
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उलेमा के ठीक विपरीत सूफी थे। सूफी रहस्यवादी थे। वे पवित्रा धर्मपरायण पुरुष थे, जो राजनैतिक व धर्मिक जीवन के अध्:पतन पर दु:खी थे। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में धर्म के अभद्र प्रदर्शन व ‘धर्म भ्रष्ट शासकों’ की उलेमा द्वारा सेवा करने की तत्परता का विरोध् किया। कई लोग एकान्त तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे एवं राज्य से उनका कोर्इ लेना-देना नहीं रहा। सूफी दर्शन भी उलेमा से भिन्न था। सूफियों ने स्वतंत्र विचारों एवं उदार सोच पर बल दिया। वे धर्म में औपचारिक पूजन, कठोरता एवं कटरता के विरुद्ध थे। सूफियों ने धर्मिक संतुष्टि के लिए ध्यान पर जोर दिया। भक्ति संतों की तरह, सूफी भी धर्म को ‘ईश्वर के प्रेम’ एवं मानवता की सेवा के रूप में परिभाषित करते थे। कुछ समय में सूफी विभिन्न सिलसिलों (श्रेणियों) में विभाजित हो गए। प्रत्येक सिलसिले में स्वयं का एक पीर (मार्गदर्शक) था जिसे ख्वाजा या शेख भी कहा जाता था। पीर व उसके चेले खानका (सेवागढ़) में रहते थे। प्रत्येक पीर अपने कार्य को चलाने के लिए उन चेलों में से किसी एक को वली अहद (उत्तरािध्कारी) नामित कर देता था। सूफियों ने रहस्यमय भावातिरेक जगाने के लिए समां (पवित्रा गीतों का गायन) संगठित किए। इराक में बसरा सूफी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। यह ध्यान देने की बात है कि सूफी संत एक नया धर्म स्थापित नहीं कर रहे थे अपितु इस्लामी ढांचे के भीतर ही एक अधिक उदार आन्दोलन प्रारम्भ कर रहे थे। कुरआन में उनकी निष्ठा उतनी ही थी जितनी उलेमाओं की।