सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान
जगती के मन को खींच-खींच
निज छवि के रस से सींच-सींच
जल-कन्याएँ भोली अनजान,
सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान
प्रातः समीर से हो अधीर,
छूकर पल-पल उल्लसित तीर,
कुसुमावलि-सी पुलकित महान,
सागर के उर पर नाच-नाच, करती हैं लहरें मधुरगान
संध्या-से पाकर रुचि रंग
करती-सी शत सुर-चाप भंग
हिलती नव तरु-दल के समान,
सागर के उर पर ना
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सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।
इस कविता में लहरों को भोली अनजान कन्याओं , फूलों की पंक्तियों , वृक्षों के ने दलों तथा तारों की पंक्तियाँ के रूप में वर्णन किया गया है |
इसमें लहरों को जल कन्याएँ कहा गया है क्योंकि सागर में लहरें मधुरगान करती हुई नाचती हैं। प्रात:काल पवन बहुत ज़ोर से चलती है। इसका लहरों पर प्रभाव पड़ता है। लहरों को छू लेने से सागर की लहरे बहुत खुश हो जाती हैं। फूल की तरह सागर की लहरें खिल जाती हैं।
प्रात:काल अधीर होती हैं। संध्या को डूबते सूरज के रंग के साथ रंग-बिरंगी हो जाती हैं। सागर में लहरों से ही मधुरगान संभव है। उनके प्राण एक ही सूत्र में बंधे हैं। लहरें कभी शांत, कभी अधीर, कभी चंचल और कभी रंग-बिरंगी हो जाती हैं। फिर भी सब सब एक दूसरे के साथ बंधी हुई हैं।
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