Hindi, asked by mmrastogi1940, 3 months ago

सिंहों के लेहड़े नहीं, हँसों को नहीं पाँत
लालों की नहिं बोरियाँ, साधु न चले जमात।।11।।
please me give meaning of this दोहा.....​

Answers

Answered by kartikeysharma967
0

Answer:

Can you ask this question in english?

Answered by 1narendrasingh111
1

Answer:

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।

विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह ॥1॥

भावार्थ - कोई पूछ बैठे तो सन्तों के लक्षण ये हैं- किसी से भी बैर नहीं, कोई कामना नहीं, एक प्रभु से ही पूरा प्रेम ।और विषय-वासनाओं में निर्लेपता ।

संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत ।

चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत ॥2॥

भावार्थ - करोड़ों ही असन्त आजायं, तोभी सन्त अपना सन्तपना नहीं छोड़ता । चन्दन के वृक्ष पर कितने ही साँप आ बैठें, तोभी वह शीतलता को नहीं छोड़ता ।

गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।

कह `कबीर' ता साध की, हम चरनन की खेह ॥3॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं कि हम ऐसे साधु के पैरों की धूल बन जाना चाहते हैं, जो गाँठ में एक कौड़ी भी नहीं रखता और नारी से जिसका प्रेम नहीं ।

सिहों के लेहँड़ नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।

लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलैं जमात ॥4॥

भावार्थ - सिंहों के झुण्ड नहीं हुआ करते और न हंसों की कतारें । लाल-रत्न बोरियों में नहीं भरे जाते, और जमात को साथ लेकर साधु नहिं चला करते ।

जाति न पूछौ साध की, पूछ लीजिए ग्यान ।

मोल करौ तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥5॥

भावार्थ -क्या पूछते हो कि साधु किस जाति का है?पूछना हो तो उससे ज्ञान की बात पूछोतलवार खरीदनी है, तो उसकी धार पर चढ़े पानी को देखो, उसके म्यान को फेंक दो, भले ही वह बहुमूल्य हो ।

`कबीर' हरि का भावता, झीणां पंजर तास ।

रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥6॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं -हरि के प्यारे का शरीर तो देखो-पंजर ही रह गया है बाकी । सारी ही रात उसे नींद नहीं आती, और अंग पर मांस नहीं चढ़ रहा ।

राम बियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोइ ।

तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होइ ॥7॥

भावार्थ - पूछते हो कि राम का वियोग होता कैसा है ?विरह में वह व्यथित रहता है, देखकर कोई पहचान नहीं पाता कि वह कौन है ?तम्बोली के पान की तरह, बिना सींचे, दिन-दिन वह पीला पड़ता जाता है ।

काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।

`कबीर' बिचारा क्या कहै, जाकी सुखदेव बोलै साखि ॥8॥

भावार्थ - हाँ,राम से काम भी मिला सकता है -ऐसा काम, जिसे कि नियंत्रण में रखा जाय। यह बात बेचारा कबीर ही नहीं कह रहा है, शुकदेव मुनि भी साक्षी भर रहे हैं । [ आशय `धर्म से अविरुद्ध' काम से है, अर्थात् भोग के प्रति अनासक्ति और उसपर नियंत्रण ।]

जिहिं हिरदे हरि आइया, सो क्यूं छानां होइ ।

जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥9॥

भावार्थ - जिसके अन्तर में हरि आ बसा, उसके प्रेम को कैसे छिपाया जा सकता है ? दीपक को जतन कर-कर कितना ही छिपाओ, तब भी उसका उजेला तो प्रकट हो ही जायगा।[रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में चिमनी के अन्दर से फानुस का प्रकाश छिपा नहीं रह सकता ।]

फाटै दीदै में फिरौं, नजरि न आवै कोइ ।

जिहि घटि मेरा साँईयाँ, सो क्यूं छाना होइ ॥10॥

भावार्थ - कबसे मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा हूँ कि ऐसा कोई मिल जाय, जिसे मेरे साईं का दीदार हुआ हो । वह किसी भी तरह छिपा नहीं रह जायगा, नजर पर चढ़े तो !

पावकरूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।

चित चकमक लागै नहीं, ताथै धूवाँ ह्वै-ह्वै जाइ ॥11॥

भावार्थ - मेरा राम तो आग के सदृश है, जो घट-घट में समा रहा है । वह प्रकट तभी होगा, जब कि चित्त उसपर केन्द्रित हो जायगा । चकमक पत्थर की रगड़ बैठ नहीं रही, इससे केवल धुँवा उठ रहा है । तो आग अब कैसे प्रकटे ?

`कबीर' खालिक जागिया, और न जागै कोइ ।

कै जगै बिषई विष-भर्‌या, कै दास बंदगी होइ ॥12॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं -जाग रहा है, तो मेरा वह खालिक ही, दुनिया तो गहरी नींद में सो रही है, कोई भी नहीं जाग रहा । हाँ, ये दो ही जागते हैं - या तो विषय के जहर में डूबा हुआ कोई, या फिर साईं का बन्दा, जिसकी सारी रात बंदगी करते- करते बीत जाती है ।

पुरपाटण सुवस बसा, आनन्द ठांयैं ठांइ ।

राम-सनेही बाहिरा, उलजंड़ मेरे भाइ ॥13॥

भावार्थ - मेरी समझ में वे पुर और वे नगर वीरान ही हैं, जिनमें राम के स्नेही नहीं बस रहे, यद्यपि उनको बड़े सुन्दर ढंग से बनाया और बसाया गया है और जगह-जगह जहाँ आनन्द-उत्सव हो रहे हैं ।

जिहिं घरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।

ते घर मड़हट सारंषे, भूत बसै तिन माहिं ॥14॥

भावार्थ - जिस घर में साधु की पूजा नहीं, और हरि की सेवा नहीं होती, वह घर तो मरघट है, उसमें भूत-ही-भूत रहते हैं ।

हैवर गैवर सघन धन, छत्रपति की नारि ।

तास पटंतर ना तूलै, हरिजन की पनिहारि ॥15॥

भावार्थ - हरि-भक्त की पनिहारिन की बराबरी छत्रधारी की रानी भी नहीं कर सकती । ऐसे राजा की रानी,जो अच्छे-से-अच्छे घोड़ों और हाथियों का स्वामी है, और जिसका खजाना अपार धन-सम्पदा से भरा पड़ा है ।

क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौं मान ।

वा मांग संवारे पीव कौं, या नित उठि सुमिरै राम ॥26॥

भावार्थ - रानी को यह नीचा स्थान क्यों दिया गया, और पनिहारिन को इतना ऊँचा स्थान ? इसलिए कि रानी तो अपने राजा को रिझाने के लिए मांग सँवारती है, सिंगार करती है और वह पनिहारिन नित्य उठकर अपने राम का सुमिरन ।

`कबीर कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास ।

जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक-पलास ॥27॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं-- कुल तो वही श्रेष्ठ है, जिसमें हरि-भक्त जन्म लेता है । जिस कुल में हरि-भक्त नहीं जनमता, वह कुल आक और पलास के समान व्यर्थ है ।

Similar questions