साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः
साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः
तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।।2
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साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात नाख़ून और सींघ रहित पशु के समान है। और ये पशुओं की खुद्किस्मती है की वो उनकी तरह घास नहीं खाता।
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साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात नाखून औ सींघ रहित पशु के समान है। और ये पशुओं की खुकिस्मती है की उनकी तरह घास नहीं खाता।
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