साई सेत न पाइए बाताँ मिले न कोय कबीर सौदा राम सौ , सिर बिन कदै न होय । इस दोहे का भावार्थ
Answers
Answer:
Explanation:
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो पंजाब में चौपायों को खिलाई जाती है। यह कपास के साथ बोई जाती है।
⋙ सेंट
संज्ञा पुं० [अं० सेन्ट] १. सुगंधियुक्त द्रव्य। २. महक। गंध। खुशबू। उ०—वेणी सेंट से महकाई सी; जरा रेडियो को ऊँचा कर दीजो, दुलहन।—बंदनवार, पृ० ४४। ३. शत। सौ। ४. किसी बड़े सिक्के का सौवाँ भाग।
⋙ सेंटर
संज्ञा पुं० [अं० सेन्टर] १. गोलाई या वृत्त के बीच का बिंदु। केंद्र। मध्यबिंदु। २. प्रधान स्थान। जैसे,—परीक्षा का सेंटर।
⋙ सेंटेंस
संज्ञा पुं० [अं० सेन्टेन्स] वाक्य। उ०—अंग्रेजी का एक सेंटेंस भी ठीक से नहीं बोल सकते।—संन्यासी, पृ० १७५।
⋙ सेंट्रल
वि० [अं० सेन्ट्रल] जो केंद्र या मध्य में हो। केंद्रीय। प्रधान। मुख्य। जैसे,—सेंट्रल गवर्नमेंट, सेंट्रल कमेटी, सेंट्रल जेल।
⋙ सेंद्रिय
वि० [सं० सेन्द्रिय] [वि० स्त्री० सेन्द्रिया] १. इंद्रियसंपन्न। जिसमें इंद्रियाँ हों। सजोव। जैसे,—सेंद्रिय द्रव्य। उ०—सेंद्रिया मैं, अगुणता से नित्य उकता ही रही थी; सजन मैं आ ही रही थी।—क्वासि, पृ० ८५। २. पुरुषत्वयुक्त। जिसमें मरदानगी हो। पुंसत्वयुक्त।
⋙ सेंद्रियता
संज्ञा स्त्री० [सं० सेन्द्रिय + ता (प्रत्य०)] इंद्रियसंपन्न होने का भाव, स्थिति या क्रिया। सजीवता। साकारता। उ०—नभ विहारिणी, अलख प्राण, निज जन की सुधि करिए। हे अतींद्रिये सेंद्रियता से क्यों इतना डरिए।—अपलक, पृ० २२।
⋙ सेंसर
संज्ञा पुं० [अ० सेन्सर] वह सरकारी अफसर जिसे पुस्तक, पुस्तिकाएँ विशेषकर समाचारपत्र छपने या प्रकाशित होने, नाटक खेले जाने, फिल्म दिखाए जाने, या तार कहीं भेजे जाने के पूर्व देखने या जाँचने का अधिकार होता है। यह जाँच इसलियेहोती है कि कहीं उनमें कोई आपत्तिजनक या भड़कानेवाली बात तो नहीं है। विशेष—बायस्कोप के फिल्मों या नाटकों की जाँच और काट छाँट करने के लिये तो सेंसर बराबर रहता है, पर समाचारपत्रों और तारघरों में उसी समय सेंसर बैठाए जाते हैं जब देश में विद्रोह या किसी प्रकार की उत्तेजना फैली होती है अथवा किसी देश से युद्ध छिड़ा होता है। सेंसर ऐसी बातों को प्रकाशित नहीं होने देता जिनसे देश में और भी उत्तेजना फैल सकती हो अथवा शत्रु या विरोधी को किसी प्रकार का लाभ पहुँचता हो। यौ०—सेंसर बोर्ड = सेंसर करनेवाले अनेक अधिकारियों का समूह या समिति।
⋙ सेंसस
संज्ञा पुं० [अं० सेन्सस] दे० 'मर्दुमशुमारी'।
⋙ सेँ पु
अव्य० [सं० स्वयम्, प्रा० सयं, सइँ = से] स्वयं। खुद। उ०—सें बुझ्झै सुरतान दूत पच्छिम सुबिहानं।—पृ०, रा०, १०।८।
⋙ सेँक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० सेंकना] १. आँच के पास या दहकते अंगारे पर रखकर भूनने की क्रिया। २. आँच के द्वारा गरमी पहुँचाने की क्रिया। जैसे,—दर्द में सेँक से बहुत लाभ होगा। क्रि० प्र०—करना।—देना।—होना। यौ०—सेँकसाँक।
⋙ सेँक (२)
संज्ञा स्त्री० लोहे की कमाची जिसका व्यवहार छीपी कपड़े छापने में करते हैं।
⋙ सेँकना
क्रि० स० [सं० श्रेषण (= जलाना, तपाना)] १. आँच के पास या आग पर रखकर भूनना। जैसे,—रोटी सेँकना। २. आँच के द्वारा गरमी पहुँचाना। आँच दिखाना। आग के पास ले जाकर गरम करना। जैसे,—हाथ पैर सेँकना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। मुहा०—आँख सेँकना = सुंदर रूप देखना। नजारा करना। धूप सेँकना = धूप में रहकर शरीर में गरमी पहुँचाना। धूप खाना।
⋙ सेँकी †
संज्ञा स्त्री० [फा़० सीनी, हिं० सीनिकी, सनहकी] तश्तरी। रकाबी।
⋙ सेँगर (१)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गार] १. एक पौधा जिसकी फलियों की तरकारी बनती है। २. इस पौधे की फली। ३. बबूल की फली या छीमी। विशेष—ओषधिकार्य में भी इसका प्रयोग विहित है। अधिकतर यह भैंस, बकरी, ऊँट आदि को खाने को दी जाती है। ४. एक प्रकार का अगहनी धान जिसका चावल बहुत दिनों तक रहता है।
⋙ सेँगर (२)
संज्ञा पुं० [सं० श्रृङ्गीवर] क्षत्रियों की एक जाति या शाखा। उ०—कूरम, राठौर, गौड़, हाड़ा, चहुवान, मौर, तोमर, चँदेल, जादौ जंग जितवार हैं। पौरच, पुँडीर, परिहार और पँवार बैस, सेँगर, सिसोदिया, सुलंकी दितवार हैं।—सूदन (शब्द०)। (ख) सेँगर सपूती सों भरे। जे सुद्ध जुद्धन में लरे।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ८।
⋙ सेँगरा †
संज्ञा पुं० [देश०] पोख्ते बाँस का वह डंडा जिसमें लटकाकर भारी पत्थर या धरन एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं।
⋙ सेँटा †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्रोत] धार। स्रोत। उ०—कुछ इधर उधर से अकस्मात्, जल की सेँटों के भी फुहार। हे खनक किए जा कूपखनन तू यहाँ बीच में ही न हार।—दैनिकी, पृ० ३१। २. गाय की छीमी से निकली हुई दूध की धार।
⋙ सेँठा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. मूँज या सरकंडे के सींके का निचला मोटा मजबूत हिस्सा जो मोढ़े आदि बनाने के काम में आता है। कन्ना। २. एक प्रकार की घास जो छप्पर छाने के काम में आती है। ३. जुलाहों की वह पोली लकड़ी जिसमें ऊरी फँसाई जाती है। डौंड़।
⋙ सेँठा (२)
वि० [सं० सुष्ठु या स्व + इष्ट] [स्त्री० सेंठी] १. दृढ़तापूर्वक। ठीक। मजबूत। श्रेष्ठ। उ०—सब सुख छाँड़ भज्यो इक साँई राम नाम लिव लागी। सूरवीर सेँठा पग रोप्या जरा मरण भव भागी।—राम० धर्म०, पृ० ४५। (ख) परगहग ले बाँधी पगाँ, सेँठी गूधर साथ। हंजारो सारो हुकम, हुओ रँगीली हाथ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ११। २. इच्छित। इष्ट। अभि- लषित। उ०—खोजी खोज पकड़िया सेँठा। सब संता माहीं मिलि बेठा।—राम० धर्म०, पृ० २०८।
⋙ सेँड़, सेँढ़
संज्ञा पुं० [सं० सेत्र(= बंधन, निगड) अथवा देश०] एक प्रकार का खनिज पदार्थ जिसका व्यवहार सुनार करते हैं। उ०—राज्य के विभिन्न भागों में कोयला, मैंगनीज, सिलिका, सेँड़ आदि अनेक खनिज पदार्थ विपुल मात्रा में पाए जाते हैं।— शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १९।
⋙ सेँत
दिए गए पद कबीर द्वारा रचित है -
इन पंक्तियों के माध्यम से कबीर यह कहना चाह रहे है की केवल बातें करने से ईश्वर (साई) की प्राप्ति नई होती। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उनकी उपसना करने से ही ईश्वर को खुश किया जा सकते है।
मनुष्य का आधार तो ईश्वर ही है। उनको पाने के लिए किसी सी उनकी बातें न करो केवल उनका ध्यान करो। इसके उपरांत राम की आशीष की भी आवश्यकता होती है।
भगवान् केवल उन पर ही अपने हाथ रखते है जो सच्चे मन से उनकी उपासना करते है। इसलिए ईश्वर को पाने के लिए उनका ध्यान करना आवश्यक है। मौन रहना कुछ भी अपशब्द बोलने से अच्छा है।
#SPJ2