साँझ होते ही सारा माहौल भाँय भाँय करने लगता था। दिन भर के थके हारे
मजदूर अपने-अपने दड़बों में घुस जाते थे। साँप बिच्छू का डर लगा रहता
था। जैसे समूचा जंगल झोपड़ी के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया है। ऐसे
माहौल में मानो का जी घबराने लगता था। लेकिन करे भी तो क्या। न जाने
कितनी बार सुक्रिया से कहा था मानो ने, "अपने देश की सूखी रोटी भी परदेश
के पकवानों से अच्छी होती है।"
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