साँझ के बादल (धर्मवीर भारती) ये अनजान नदी की नावें जादू के-से पल उड़ातीं आतीं मंथर चाल ! नीलम पर किरनों की साँझी एक न डोरी एक न मांझी फिर भी लाद निरंतर लातीं सेंदुर और प्रवाल ! कुछ समीप की कुछ सुदूर की कुछ चन्दन की कुछ कपूर की कुछ में गेरू, कुछ में रेशम, कुछ में केवल जाल ! ये अनजान नदी की नावें जादू के-से पल उड़ातीं आतीं मंथर चाल ! Ka arth
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संदर्भ — यह कविता प्रसिद्ध हिंदी कवि धर्मवीर भारती द्वारा रचित है इस कविता के माध्यम से कवि ने प्रकृति के गत्यात्मक रूप का चित्रण सजीवता से करते हुए बहुत रोचक प्रस्तुतीकरण दिया है।
भावार्थ — कवि भारती जी कहते हैं कि यह बादल अनजान नदी की नावों की तरह हैं जो धीमी गति से जादू के पालों को उड़ाते हुए चले आ रहे हैं अर्थात जिस तरह नदी में पानी के बहाव के साथ सब कुछ महक कर चला जाता है, उसी तरह बादल होती अनजान नदी की नाव भी अपने साथ सब कुछ बहाते हुई चली जा रही है।
कवि के अनुसार बादल रूपी नाव में तरह-तरह की नाव है, कुछ दूर नाव हैं तो कुछ पास की हैं। कुछ चंदन की हैं, तो कुछ कपूर की है। कुछ गेरु की है, कुछ रेशम की और कुछ केवल जाल की तरह भ्रमित कर देने वाली नावें है।
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