साकेत-नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त
अलि, काल है काल अन्त में,
उष्ण रहे चाहे वह शीत
अब यह हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
आत का स्वागत समुचित है पर क्या आँस लेकर?
प्रिय होते तो लेती मैं उसको घी-गुड़ देकर।
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बहुत अच्छी कविता है इनके लेखक हम हो नहीं पा रहे हैं अगर आपको पता है तो कमेंट कीजिए
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