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धर्म-अध्यात्म
सुख और दुःख जीवन में साथ चलते हैं
5 years ago ललित गर्ग
दुनिया का हर इंसान सुख चाहता है। दुःख कोई नहीं चाहता। वह दुःख से डरता हैं इसलिए दुःख से छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करता है। मतलब दुःख को खत्म करने और सुख को सृजित करने के लिए हर इंसान अपनी क्षमता के मुताबिक हमेशा कुछ-न-कुछ करता है। सुख और दुःख धूप- छाया की तरह सदा इंसान के साथ रहते हैं। लंबी जिन्दगी में खट्ठे-मीठे पदार्थों के समान दोनों का स्वाद चखना होता है। सुख-दुःख के सह-अस्तित्व को आज तक कोई मिटा नहीं सका है। जीवन की प्रतिमा को सुन्दर और सुसज्जित बनाने में सुख और दुःख आभूषण के समान है। इस स्थिति में सुख से प्यार और दुःख से घृणा की मनोवृत्ति ही अनेक समस्याओं का कारण बनती है और इसी से जीवन उलझनभरा प्रतीत होता है। जरूरत है इनदोनों स्थितियों के बीच संतुलन स्थापित करने की, सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की। रूस के महान साहित्यकार और क्रांतिकारी मैक्सिम गोर्की ने कहा है कि खुशी जब हाथ में होती है तो छोटी लगती है। उसे एक बार छोड़कर देखो और एक पल में पता लग जाएगा कि यह कितनी बड़ी और खास है। मैक्सिम गोर्की इंसानी नजरिया को स्पष्ट करते हुए आगे कहता है कि एक दुखी आदमी दूसरे दुखी आदमी की तलाश में रहता है। उसके बाद ही वह खुश होता है। यही संकीर्ण दृष्टिकोण इंसान को वास्तविक सुख तक नहीं पहुंचने देता। जबकि हमें अपने अनंत शक्तिमय और आनन्दमय स्वरूप को पहचानना चाहिए तथा आत्मविश्वास और उल्लास की ज्योति प्रज्ज्वलित करनी चाहिए। इसी से वास्तविक सुख का साक्षात्कार संभव है।
सुख उस मधुर, कर्ण प्रिय गति-सा है जिसका गुनगुनना सबको अच्छा लगता है। सुख एक ऐसा वरदान है जिसकी सभी कामना करते हैं। सभी सुख पाने को बड़े उत्सुक होते हैं happyपरन्तु यह किसी की भी पकड़ में नहीं आता है। सुख बयार का वह झोंका है जिसके गुजर जाने का आभास तक नहीं होता है। सुख में समय कब निकल गया इसका जहां आभास तक नहीं होता है, वहीं दुःख में समय रुका, ठहरा सा लगता है। सुख कर रंग-रूप व्यक्तिगत होता है और वह जहां भी मिलता है आनन्दमय लगता है। सुख में थकान की अनुभूति संभव नहीं। सुख उस कोमल मुलायम रेशम के धागा की गांठ-सा होता है जिसको खोज पाना संभव नहीं। सुख के लिए सारा संसार भागता रहता है। सुख भ्रम है या मृगतृष्णा यह विवाद का विषय है। संसार में सुखी व्यक्ति जहां और सुखी होने को दौड़ता है वहीं जिसे सुख नहीं मिलता वह संपूर्ण जीवन सुख की प्रतीक्षा करता रहता है।
सुख-दुःख जुड़वा भाई के समान है, जो सदैव एक-दूसरे के साथ ही रहते हैं। यदि आप एक की अंगुली थामते हैं तो दूसरा तुम्हारे हाथ की कुंडली अवश्य पकड़ लेता है। इस तरह सुख-दुःख एक साथ चलते रहते हैं, पर हम अपनी आंखों पर लगे पर्दे के कारण इस अंतर को, भेद को समझ नहीं पाते है, विशेष रूप से दुख को। मनुष्य दुख में इतना दुखी हो जाता है कि उसे सुख का आभास तक भी नहीं हो पाता है तथा वह सुख की तलाश करने लगता है।