सोल प्रभाव की समझाइ
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हिन्दी साहित्य का माध्यमिक काल, मेरे विचार से चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय विजयी मुसलमानों का अधिकार उत्तार भारत के अधिकांश विभागों में हो गया था और दिन-दिन उनकी शक्ति वर्ध्दित हो रही थी। दक्षिण प्रान्त में उन्होंने अपने पाँव बढ़ाये थे और वहाँ भी विजय-श्री उनका साथ दे रही थी। इस समय मुसलमान विजेता अपने प्रभाव विस्तार के साथ भारतवर्ष की भाषाओं से भी स्नेह करने लगे थे और उन युक्तियों को ग्रहण कर रहे थे जिनसे उनके राज्य में स्थायिता हो और वे हिन्दुओं के हृदय पर भी अधिकार कर सकें। इस सूत्रा से अनेक मुस्लिम विद्वानों ने हिन्दी भाषा का अधययन किया, क्योंकि वह देश-भाषा थी। मुसलमानों में राज्य-प्रसार के साथ अपने धर्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहाँ वे राज्य-रक्षण अपनार् कर्तव्य समझते, वहीं अपने धर्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहाँ विजयी मुसलमानों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिकार कर रही थी, वहीं उनके धर्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धर्म की महत्ता बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविक है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिंच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य-सूत्रा से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौध्द धर्म का प्राय: भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो मुसलमान धर्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धर्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़कर उन देशों को चले गये थे जहाँ पर बौध्द धर्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धर्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धर्म था और दूसरा विजयी मुसलमान जाति का। राज-धर्म होने के कारण मुसलमान धर्म को उन्नति के अनेक साधन प्राप्त थे, अतएव वह प्रतिदिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्ध उपस्थित होने के कारण हिन्दू धर्म दिन-दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविध-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफी सम्प्रदाय के अनेक मुसलमान फकीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्धा हुए और अपने वंशगत धर्म को तिलांजलि देकर उस मंत्रा का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहाँ हिन्दुओं की क्षीण शक्ति प्रान्तिक राजा-महाराजाओं के रूप में अपने दिन-दिन धवंस होते छोटे-मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहाँ पुण्यमयी भारत-वसुन्धारा में ऐसे धर्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतनप्राय वैदिक धर्म की बहुत रक्षा की। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने बंगाल प्रान्त में सूफियों में धर्म प्रचार के विषय में अपने (मेडिबल इंडिया) नामक ग्रंथ में जो कुछ लिखा है, उसमें इस समय का सच्चा चित्रा अंकित है। अभिज्ञता के लिए उसका कुछ अंश मैं यहाँ उद्धृत करता हूँ। 1