Hindi, asked by Kabir1029, 7 months ago

सामाजिक अंधविशासों के प्रति रैदास की क्या सोच थी ?

Answers

Answered by riteshmahato2005
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Answer:

ऐसा चाहुं राज मैं, मिलै सवन को अन्न।

छोट बड़ो सब सम बसै, रविदास रहे प्रसन्न।।

भारत की सभ्यता-संस्कृति को संवारने तथा सुरक्षित रखने में संत-महात्माओं की भूमिका अग्रणी रही है। मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के अनेकानेक संत-महात्माओं की भूमिका समाज सुधारक और पथ प्रदर्शक की थी। भक्तिकाल के इन संतों में एक ऐसे मानववादी संत रविदास जी हुए, जिन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था, सामाजिक कुरीतिया, धर्मांन्धता, अंधविश्वास व अस्पृश्यता के खिलाफ आवाज बुलन्द किया। यह कटू सत्य है कि सदियों से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था ने मानव जाति के साथ बहुत अन्याय किया है। वर्णव्यवस्था के कारण ही जातिप्रथा का विस्तार हुआ और इसके परिणामस्वरूप समाज में विभिन्न जातियों के बीच नफरत की दीवार खड़ी होती चली गई।

प्रारंभ में जो वर्णव्यवस्था कर्म पर आधारित थी वही कालांतर में जन्म आधारित बन गई।

भक्तिकाल के संत रविदास जी का जन्म पंद्रहवीं सदी में उस समय हुआ जब भारत सामाजिक, राजनीतिक व धाॢमक विपदाओं से जूझ रहा था। देश में सामंतवाद और जागीरदारों का बोलबाला था। मध्यकाल के इस युग को सामन्तवादियों व रुढि़वादियों का युग कहना अनुचित न होगा क्योंकि इस युग में धाॢमक व समाजिक कुरीतियों, धर्मांन्धता, छुआ-छूत का प्रकोप पूरे समाज में बुरी तरह फैल चुकी थी। जनमानस इन कुरीतियों को ही अपने जीवन का अंग मानने लगे थे। निम्न जाति के लोगों के लिए मंदिरों में प्रवेश वॢजत था। विदेशी शासकों के द्वारा देश की धन-सम्पदा लूटी जा रही थी, धाॢमक-स्थलों को नष्ट किया जा रहा था। इतना ही नहीं लोगों को धर्म-परिवर्तन के लिए भी मजबूर किया जाता था। दलित और शोषित वर्ग के लोगों को कर्मकाण्ड की दोहरी मार को झेलना पड़ रहा था। सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक ढ़ांचा लगभग ध्वस्त हो चुका था।

इस निस्तेज मध्ययुग को स्वर्ण युग बनाने का श्रे नि:संदेह मानवतावादी संत रविदास जी को जाता है। संत शिरोमणि कुलगुरू रविदास जी ने मध्यकाल में प्रचलित संत परंपरा का निर्वाह करते हुए तात्कालीन समाज को जाति-धर्म से ऊपर उठाने का काम किया ताकि प्रत्येक मनुष्य अपने जन्म के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर सके। संत रविदास मानवतावादी प्राणधारा के उन संत कवियों में थे जिन्होंने तत्कालीन व्यवस्था से जूझते परेशान एवं हताश लोगों को सूक्ष्मता से देखा-परखा और अपने विलक्षण अपने प्रतिभा से उनका मार्गदर्शन किया। अपने काव्य और व्यंग के द्वारा समाज में फैली जाति-भेद, छुआ-छूत, धर्मांन्धता व अंधविश्वास जैसे सामाजिक कुरीतियों और विसंगतियों पर कड़ा प्रहार किया। मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए रविदास जी सदैव संघर्षरत रहे।

उनका आध्यात्मिक लक्ष्य जहॉं ;ब्रह्मानन्द की प्राप्ति था वहीं सामाजिक लक्ष्य का शिखर लोक कल्याण की भावना में सन्निहित था। रविदास जी भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ऐसे सिरमौर संत थे जिन्होंने तात्कालीन समाज में व्याप्त अनेकानेक रुढिय़ों, परम्पराओं तथा सामाजिक कुरीतियों पर कड़ा प्रहार किया, इस सामाजिक प्रकोप को जड़ से समाप्त करने के लिए उन्होंने विभिन्न धर्मों, जातियों और सम्प्रदायों में समन्वय स्थापित कर ज्ञान की कसौटी के आधार पर इसे मिथ्या सिद्ध किया। संतकवि रविदास जी ने मानवीय मूल्यों की पक्षधरता करते हुए जन-जन में निर्गुण भक्ति का संचार किया।

संत कवि की वाणी समाज के सभी वर्गों को एक ही प्रभू की संतान मानकर एक दूसरे से सदाचार का उपदेश देती है। संत रविदास की कविता समाज और धर्म के ठेकेदारों द्वारा निम्न जाति के लोगों के लिए बंद किये दरवाजों को पीटकर उसे प्रश्न करने का साहस देती है। उस युग में काव्यरचना इस लालच से की जाती थी कि किसी शासक का संरक्षण प्राप्त हो सके। परन्तु रविदास जैसे क्रांतिकारी संतकवि ने मानव जीवन की बेहतरी के अलावा ना कोई सपना देखा न कोई समझौता किया। गुरू रविदास जी समूची विश्व-चेतना को एकाकार करने का स्वप्न देखते थे। वे अपने काव्य के माध्यम से कहते हैं कि प्रभू ही सबके स्वामी हैं, यह सारा संसार उन्ही की देन है। हम सब एक ही माटी के भांडे हैं।

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