सामाजिक अनुबंध की बहुत अवधारणा पुरुष सुख तक पर आधारित वर्ण व्यवस्था से किस प्रकार भिन्न थी?
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ऋग्वेद के प्रारम्भिक चरणों में वर्ण - व्यवस्था जैसी कोई संस्था नहीं थी। उस समय दो वर्ण थे - आर्य और आर्येत्तर ( दास - दस्यु ) प्रथम मण्डल में अगस्त ऋषि द्वारा दो वर्णों की कामना किये जाने का उल्लेख है। आगे चलकर यह भी कहा गया है कि इन्द्र ने दस्युओं का वध करके आर्य वर्ण की रक्षा की , और दास वर्ण को अन्धकार में रखा। 3. यही आर्य वर्ण आगे चलकर तीन भागों में विभाजित हुआ - ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य। साथ ही दस्युओं - दासों अर्थात अनार्यों को शूद्र वर्ण के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया। ऋग्वेद में एक स्थान पर कहा गया है कि इन्द्र ने दासों को आर्य वर्ण में परिवर्तित किया।ऋग्वेद के दशम मण्डल के ‘ पुरुषसूक्त ’’5 में एक मात्र ऐसा सूक्त है जहाँ चतुर्वर्णों का उल्लेख होता है। उसमें कहा गया है ब्राह्मण परम पुरुष के मुख से , क्षत्रिय उसकी भुजाओं से , वैश्य उसकी जाँघों से तथा शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुए। इस प्रकार इसमें चारों वर्णों के क्रम , उनकी दैवी उत्पत्ति तथा उनकी उच्चता - निम्नता भी प्रकट हैं।