सामाजिक एवं वैवाहिक जीवन पर
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पहले अभिभावक या परिवार के बड़े ही आपसी समझ से अपने बच्चों के विवाह से संबंधित सभी निर्णय ले लेते थे, जिनमें स्वयं विवाह योग्य युवक-युवतियों की रजामंदी मायने नहीं रखती थी. बच्चों का कर्तव्य होता था केवल अपने माता-पिता के कहे अनुसार चलना. हां, ऐसी व्यवस्था का एकमात्र फायदा ये था कि अपने संबंध को अभिभावकों की इच्छा मानते हुए पति-पत्नी हर परिस्थिति में एक-दूसरे के साथ रहने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लेते थे.
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