सामने तरुमालिका अट्टालिका, प्राकार ।इन पंक्तियों का साधारण अर्थ इस प्रकार है — मजदूरिन जिस पेड़ के नीचे बैठी हुई है, वह छायादार नहीं है । लेकिन यह उसे स्वीकार है । उसका रंग सांवला है । शरीर भरा हुआ और कसा हुआ है । उसकी झुकी हुई आंखें बड़ी प्यारी हैं क्योंकि उसका मन अपने प्रिय कर्म में लीन है । उसके हाथ में एक भारी भड़कम हथौड़ा है, जिससे वह बार-बार प्रहार कर रही है । उसके सामने ऊंची चारदीवारी से घिरी अट्टालिका है जिस पर तरु श्रेणियों की छाया है ।
इस पदबंध में जीवन-संग्राम का उद्घोष है और उसे जीतने का मंत्र भी । यह संग्राम अंदर और बाहर दोनों स्तरों पर लड़ा जा रहा है । बाहरी स्तर पर यह युद्ध विपन्नता और संपन्नता के बीच है । यह लड़ाई “कोई न छायादार पेड़” और “तरुमालिका” के बीच है । यह मुठभेड़ “गुरु हथौड़ा” और “अट्टालिका” के बीच है । लेकिन आंतरिक स्तर पर जो युद्ध लड़ा जा रहा है, वह इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें जीत की गारंटी है और वह जीत बाहरी लड़ाइयों में विजय की आधारशिला भी है । हमारे देश में बाह्य लड़ाइयाँ विफल होती रही हैं क्योंकि उनके पीछे आंतरिक लड़ाई में विजय की नींव नहीं डाली गयी होती है ।
आंतरिक लड़ाई में विजय का अर्थ है अपने दुर्गुणों के ऊपर सद्गुणों की विजय । हर विजेता को पहले यही युद्ध जीतना होता है ।राम को भी जीतना पड़ा था । युद्ध के मैदान में रावण को “रथी” और राम को “बिरथु” देखकर विभीषण हहर गये थे ।इसी प्रसंग में राम ने उन्हें समझा कर आश्वस्त किया था कि वह और रथ होता है जिससे विजय होती है । उन्होंने आंतरिक विजय की बात बतायी थी ।
प्रस्तुत पदबंध में निराला ने विजय के दो मूलभूत सूत्र दिये हैं — पहला है, “स्वीकार” और दूसरा, “कर्म-रत मन” । यही दो सूत्र इस कविता को महान बनाते हैं । इन्हीं दो सूत्रों के कारण यह कविता कभी पुरानी नहीं पड़ेगी, सदैव ताजा बनी रहेगी ।
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