सूर्य और चंद्रमा के परिभ्रमण से होने वाले समय के अंतर को किस प्रकार दूर किया जा सकता है
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उपग्रह को पृथ्वी से कितनी ऊँचाई पर परिभ्रमण करना चाहिए इसपर कोई एक मत नहीं। केवल जानने योगय बात यह है कि जितना ही वह पृथ्वी के सन्निकट रहेगा उतनी उसकी गति तेज होगी और उतने ही शीघ्र वह अपनी परिक्रमा पूरी करेगा। 2,39,000 मील की दूरी पर भ्रमण करनेवाला चंद्रमा केवल 2,400 मील प्रति घंटे के हिसाब से परिभ्रमण करता है और इस परिक्रमा में उसे 27 दिन से अधक लगते हैं, किंतु 560 मील की दूरी पर छोड़ा हुआ रूसी कृत्रिम चंद्रमा अपनी परिक्रमा 18,000 मील प्रति घंटा की गति से 96 मिनट में ही पूरी करता था। यदि यही उपग्रह 1,075 मील पर परिभ्रमण करता तो इसकी गति 15,000 मील प्रति घंटा होती और वह अपना चक्कर दो घंटे में समाप्त कर लेता। वैज्ञानिकों की योजनाओं से यह मालूम पड़ता है कि उपग्रह 300 मील से लेकर 1,000 मील तक की दूरी पर ही छोड़े जाएँ ताकि पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर होने के कारण वायुमंडल द्वारा गति अवरुद्ध न हो और किसी प्रकार शक्ति व्यय न हो, साथ ही निकट होने के कारण उदय और अस्त होनेवाले सूर्य की किरणों में इनका
यहाँ यह प्रश्न भी उठता है कि उपग्रह को किस कक्षा में भ्रमण करना चाहिए। विज्ञान के अनुसार कक्षा को हमेशा ही दीर्घवृत्ती होना पड़ेगा। उपग्रह विषुवत् रेखा के समांतर परिधि में, अथवा उससे समकोण बनाता हुआ, या किसी निर्धारित कोण में चक्कर काट सकता है। यह निश्चय है कि 24 घंटे में अपने अक्ष पर घूमती हुई पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर जाती है और उसकी दिशा में छोड़े हुए प्रक्षेपास्त्र को इस गति से लाभ मिल सकता है। ध्रुवों का चक्कर काटने पर उसे यह लाभ नहीं मिल सकता।
कक्षा या परिधि का चयन उसकी उपादेयता और छोड़नेवाले देश के परीक्षणक्षेत्र के विस्तार (proving range) पर निर्भर करेगा। अमरीकी उपग्रह को अगर 340के कोण पर छोड़ा गया तो इसका एक मुख्य कारण यह भी था कि केप मानैवराल से कैरीबियन समुद्र की ओर जो परीक्षण क्षेत्र अटलांटिक समुद्र में है वह उसी दिशा में है। यदि प्रथम प्रयोगों में किसी प्रकार की त्रुटि भी हो जाती तो प्रथम या द्वितीय स्तर किसी घनी आबादी के क्षेत्रों में न गिरकर समुद्र में ही गिरते। इसके विपरीत वांडनबर्ग से छोड़े हुए उपग्रह ध्रुवों का चक्कर काटने के लिए भेजे गए।
रूसी परीक्षण क्षेत्र भी ऐसा ही था, इसीलिए रूसी उपग्रहों ने भी लगभग 65का कोण बनाया। स्तरों के गिरने के लिए साइबीरिया का रेगिस्तान उपयुक्त स्थान था। एक बात यह भी जानने योग्य है कि विषुवत् रेखा के समांतर परिधि पृथ्वी के उन अंशों से की जाती है जहाँ आबादी बहुत कम है और उपग्रह को बहुत कम लोग देख सकते हैं। आदर्श कक्षा तो वह है जो ध्रुवों का चक्कर काटती है, क्योंकि जब तक उपग्रह एक चक्कर काटता है, पृथ्वी अपने अक्ष से कुछ आगे बढ़ जाती है। अतएव उपग्रह का दूसरा चक्कर पृथ्वी के अन्य भागों से होता है और दिन में 12 चक्कर लगानेवाला उपग्रह इन 12 चक्करों में पृथ्वी के सभी भागों के ऊपर चक्कर काट लेता है और सारी पृथ्वी उसका निरीक्षण क्षेत्र बन जाती है। अब तक जितने भी उपग्रह छोड़े गए हैं, वे सब विषुवत् रेखा के साथ एक कोण बनाकर छोड़े गए हैं और जितना ही अधिक यह कोण होता है उतना ही अधिक पृथ्वी के विभिन्न अंगों से उसका निरीक्षण किया जा सकता है। 34का कोण बनाता हुआ अमरीकी उपग्रह विषुवत् रेखा के दोनें ओर 400तक ही दृष्टिगोचर हुआ। इसके विपरीत रूसी उपग्रह काफी अधिक क्षेत्र से देखे जा सके।
पृथ्वी के अक्ष के नत होने के कारण इन उपग्रहों की कक्षा पृथ्वी के ऊपर ऐसी रेखा बनाती है जो टोकरी की बुनावट की तरह दिखाई पड़ती है। अपने प्रत्येक दूसरे चक्कर में उपग्रह पृथ्वी के अधिक पश्चिमी भागों के ऊपर होकर जाता है, क्योंकि उपग्रह के एक चक्कर काटने तक पृथ्वी अपने अक्ष पर कुछ अंश पूर्व की ओर घूम जाती है।
बहुस्तरीय राकेटों की उड़ान का क्रम यह होता है कि सर्वप्रथम पहले स्तर पर ईधंन जलने लगता है और सारा रॉकेट ऊर्ध्व दिशा की ओर पहले तो धीरे-धीरे, फिर त्वरित गति के साथ कुछ क्षणों में दृष्टि से ओझल हो जाता है। दो या तीन मिनट में ही सारा ईधंन समाप्त हो जाता है। इतने थोड़े समय में ही प्रक्षेपास्त्र 30-40 मील ऊपर चढ़ जाता है और वहीं प्रथम स्तर विच्छिन्न हो जाता है। तब तक रॉकेट की गति 3,000-4,000 मील प्रति घंटा तक हो जाती है। विच्छिन्न रॉकेट पृथ्वी पर अवतारण क्षेत्र (launching site) से लगभग 100-150 मील दूर गिर जाता है। पहले स्तर में कौन-सा ईधंन जलाया जाए, यह निश्चित नहीं है। यह द्रव ऑक्सीजन एवं गैसोलीन भी हो सकता है।
रॉकेट का दूसरा स्तर, जिसमें किसी प्रकार का अन्य रासायनिक ईधंन प्रयुक्त हो सकता है, उपगह को धीरे-धीरे अधिक झुकी हुई दिशा की ओर ले जाता है। इस प्रकार रॉकेट 140 मील की दूरी तक पहुँच जाता है और तब तक उसकी गति भी 10,000 मील प्रति घंटा हो जाती है। दूसरा स्तर तब विच्छिन्न हो सकता है या तीसरे स्तर के साथ ही उस ऊँची यात्रा में लगा भी रह सकता है और 300 मील पहुँच चुकने पर विच्छिन्न हो जाता है। तभी चलता है तीसरा स्तर, जो उपग्रह को अपनी परिधि में पहुँचाकर उसकी गति को 18,000 मील प्रति घंटे या उसके करीब बना देता है।
पहले उपग्रह विविध यंत्रों से सुसज्जित रहे हैं। इन्हीं के द्वारा वे वायुमंडल एवं अंतरिक्ष संबंधी बातों की सूचना रेडियों की भाषा में बराबर पृथ्वी को भेजते रहे हैं, जिससे अंतरिक्ष के ताप, वायु की दाब, चुंबकीय शक्ति और उसक क्षेत्र, ब्रह्मंड में सूर्य की किरणों के विकिरण, उल्काओं की संख्या आदि पर प्रकाश पड़ता रहा है।
यदि अंतिम स्तर पहुँचने तक हम रॉकेट की गति को 25,000 मील प्रति घंटे से अधिक करने में समर्थ हो सके तो हमारा प्रक्षेपास्त्र उपग्रह न बनकर ग्रह बनने की क्षमता रखता है। पृथ्वी के आकर्षण से दूर होने पर भी यह सौर मंडल से दूर नहीं जा सकता और वह स्वत: सूर्य के आकर्षण के भीतर का एक ग्रह बन जाता है। 2 जनवरी, सन् 1949 को भेजे गए रूसी प्रक्षेपास्त्र ल्यूनिक-1 का