Hindi, asked by goswamiayush489, 11 months ago

सूर्यकांत त्रिपाठी को सब प्यार से क्या बोलते थे​

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घेर अंग-अंग को

लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,

ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल

घेर निज तरु-तन।

खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,

प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।

दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-

चूर्ण हो विच्छुरित

विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही

बहु रंग-भाव भर

शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,

किरण-सम्पात से।

दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों

विचरते मञ्जु-मुख

गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज

मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।

प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-

भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार

चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में

उठी हुई उर्वशी-सी,

कम्पित प्रतनु-भार,

विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि

निश्चल अरूप में।

हुआ रूप-दर्शन

जब कृतविद्य तुम मिले

विद्या को दृगों से,

मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-

शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-

श्रृंगार

शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।

याद है, उषःकाल,-

प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,

प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की

मञ्जरित लता पर,

प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर

प्रणय-मिलन-गान,

प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु

प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;

करती विहार

उपवन में मैं, छिन्न-हार

मुक्ता-सी निःसंग,

बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;

मिले तुम एकाएक;

देख मैं रुक गयी:-

चल पद हुए अचल,

आप ही अपल दृष्टि,

फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।

दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,

इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !

दूर थी,

खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।

अपनी ही दृष्टि में;

जो था समीप विश्व,

दूर दूरतर दिखा।

मिली ज्योति छबि से तुम्हारी

ज्योति-छबि मेरी,

नीलिमा ज्यों शून्य से;

बँधकर मैं रह गयी;

डूब गये प्राणों में

पल्लव-लता-भार

वन-पुष्प-तरु-हार

कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-

सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-

सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,

सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।

प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !

बँधी हुई तुमसे ही

देखने लगी मैं फिर-

फिर प्रथम पृथ्वी को;

भाव बदला हुआ-

पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;

कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !

देखती हुई सहज

हो गयी मैं जड़ीभूत,

जगा देहज्ञान,

फिर याद गेह की हुई;

लज्जित

उठे चरण दूसरी ओर को

विमुख अपने से हुई !

चली चुपचाप,

मूक सन्ताप हृदय में,

पृथुल प्रणय-भार।

देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे

रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से

अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,

मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,

पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।

कैसी निरलस दृष्टि !

( सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कविता -हिन्दी कविता)

सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में

देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–

पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता

नभ की निरुपमा को,

पलकों पर रख नयन

करता प्रणयन, शब्द-

भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।

देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर

कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;

जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-

उनकी ही मैं हुई !

समझ नहीं सकी, हाय,

बँधा सत्य अञ्चल से

खुलकर कहाँ गिरा।

बीता कुछ काल,

देह-ज्वाला बढ़ने लगी,

नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,

उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर

पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।

करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,

किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-

भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।

तब तुम लघुपद-विहार

अनिल ज्यों बार-बार

वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे

साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।

अपने उस गीत पर

सुखद मनोहर उस तान का माया में,

लहरों में हृदय की

भूल-सी मैं गयी

संसृति के दुःख-घात,

श्लथ-गात, तुममें ज्यों

रही मैं बद्ध हो।

किन्तु हाय,

रूढ़ि, धर्म के विचार,

कुल, मान, शील, ज्ञान,

उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,

घेर लेते बार-बार,

जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र,

छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।

दोनों हम भिन्न-वर्ण,

भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,

भिन्न-धर्मभाव, पर

केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।

किन्तु दिन रात का,

जल और पृथ्वी का

भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है

समझे यह नहीं लोग

व्यर्थ अभिमान के !

अन्धकार था हृदय

अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।

गृह-जन थे कर्म पर।

मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,

नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग

किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।

आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,

अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर

जीवन की वीणा में,

सुनती थी मैं जिसे।

पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।

चल दी मैं मुक्त, साथ।

एक बार की ऋणी

उद्धार के लिए,

शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।

पूर्ण मैं कर चुकी।

गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।

रूप के द्वार पर

मोह की माधुरी

कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय,

जागती मैं रही,

गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।

मित्र के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" कविता

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