Hindi, asked by rohit6471, 9 months ago

सूरदास
भ्रमर-गीत
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
हंस-सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंजनि की छाँहीं।।
वै सुरभी वै बच्छ दोहिनी, खरिक दुहावन जाहीं।
ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि गहि बाहीं।।
यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं।
जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं।।
अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं।
सूरदास प्रभु रहे मौन है, यह कहि-कहि पछताहीं।। 4।। )​

Answers

Answered by sagar20137
9

Answer:

aap kaya puchna chahte ho

Answered by bhatiamona
30

यह पंक्तियाँ श्रीकृष्ण वचन है जो  सूरदास द्वारा लिखा गया है|

सूरदास  जी ने इन पंक्तियों श्रीकृष्ण का ब्रज छोड़कर मथुरा आ गये तो वहाँ गोपियाँ उनके वियोग में बहुत व्याकुल हो गई थी उसका वर्णन किया है|

जब श्रीकृष्ण ब्रज छोड़कर मथुरा आ गए थे तब वहाँ गोपियाँ उनके वियोग में बहुत व्याकुल हो गई थी|

कृष्ण ने अपने सखा उद्धव को उन्हें समझाने के लिये ब्रज भेजा। ब्रज से लौटकर उद्धव जी ने सारा हाल सुनाया। उद्धव ने जब श्रीकृष्ण को ब्रज की दशा का हाल सुनाया तो श्रीकृष्ण भाव विभोर होकर बोले, हे सखा! ब्रज को मैं भुला नहीं सकता। हंससुता (यमुना) का वह तट, लताओं से आच्छादित मार्गो की वह छाया का सुख मैं कैसे भूल सकता हूं? मैं उन गायों व बछडों को भी नहीं भूल सकता और न ही उस गोशाला को जहाँ मैं गायों का दूध दूहता था।

हम सब ग्वाल बाल एक दूसरे की बांहों में बांहें डालकर खेलते थे और नाचा करते थे। उस सुख को भी मैं कैसे भुला दूं? हे उद्धव! यह मथुरा नगरी यद्यपि स्वर्ण, मणि-मुक्ताओं से बनी हुई है, लेकिन जब भी मुझे ब्रज के उस सुख की याद आती है तब मन भर आता है और मुझे तन की भी सुधि नहीं रहती। मैंने अनेक प्रकार की अनंत लीलाएं कीं, जिन्हें मैया यशोदा ने बहुत ही निभाया है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण जब उद्धव से ब्रज के उस सुख की बात बतला रहे थे तब बात कहते-कहते बीच में ही मौन हो जाते थे। ऐसा कहकर मन ही मन पश्चाताप भी करने लगते थे।

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