सूरदास जी का साहित्यिक परिचय बिंदुओं के आधार पर
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भक्ति काव्य की सगुण धारा की कृष्ण भक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि सूरदास का जन्म सन् १४७८ ई० ( संवत- विक्रम १५३५) में आगरा से मथुरा जाने वाले मार्ग पर स्थित रुनकता नामक ग्राम में हुआ था। कुछ विद्वान दिल्ली के निकट स्थित 'सीही' नामक ग्राम को इनका जन्म स्थान मानते हैं। इनके पिता का नाम पं० रामदास सारस्वत था। लोगों का मानना है कि सूरदास जन्म से ही अन्धे थे। परन्तु इस विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। क्योंकि सूरदास ने वात्सल्य और श्रृंगार का जैसा अनुपम वर्णन किया है वैसा, आँखों से प्रत्यक्ष देखे बिना सम्भव नहीं है अर्थात जन्मान्ध कवि नहीं कर सकता। इन्होने स्वयं अपने आप को जन्मान्ध कहा है। ऐसा इन्होने आत्मग्लानिवश या ज्ञान चक्षुओं के अभाव में भी कहा हो सकता है।
सूरदास की रुचि बचपन से ही भगवद्भक्ति के गायन में थी और गऊघाट में रहकर विनय के पद गाया करते थे। यहाँ पर महाप्रभु बल्लभाचार्य से इनकी भेंट हुई। भेंट के समय सूरदास ने उन्हे स्वरचित एक पद गाकर सुनाया जिसे सुनकर बल्लभाचार्य की खुशी का ठिकाना न रहा और सूरदास को अपना शिष्य बना लिया।
बल्लभाचार्य से गुरु दीक्षा ली। फिर गुरु जी ने इनको गोवर्धन के श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन का भार सौंप दिया। बल्लभाचार्य के पुत्र बिट्ठलनाथ ने आठ कृष्ण भक्ति कवियों का संगठन बनाया जिसे 'अष्टछाप' कहा जाता है। सूरदास 'अष्टछाप' के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। वे गऊघाट में रहकर जीवनभर कृष्ण लीलाओं का गान करते रहे। सूरदास जी का देहान्त सन् १५८३ ई० (संवत- विक्रम १६४०) में गोवर्धन के पारसौली नामक ग्राम में हुआ था।
सूर हिन्दी साहित्य के अनुपम कवि हैं। ये भक्ति काल की कृष्ण-भक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। इनका काव्य भाव और कला भाव दोनों ही पक्षों की दृष्टि से उच्च कोटि का काव्य है। सूरदास जी श्रृंगार रस के श्रेष्ठतम कवि हैं
रचनाएं
महाकवि सूरदास की निम्नलिखित तीन रचनाएँ ही उपलब्ध हैं-
१.सूूरसागर- इसमें उन्होने सवा लाख पदो का संंकलन किया है किन्तु अभी तक केवल दस हजार पद ही उपलब्ध हैं।
२.सूर-सारावली- इसमें ११०७ पद हैं।
३.साहित्य-लहरी- इसमें ११८ दृष्टकूट पदोंं का संंकलन है।
हिन्दी साहित्य में स्थान
भक्ति कवि सूरदास का स्थान हिन्दी साहित्याकाश में सूर्य के समान है। इसीलिए कहा गया है-
' सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास।
अब के कवि खगोत सम, जहँ तहँ करत प्रकास।। '