सूरदास की जीवनी और उसके कार्य पर निबंध लिखिए
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प्राप्त तथ्यों के आधार पर सूरदास जी का जन्म संवत् 1535 ई॰ में बल्लभगढ़ के समीप सीही नामक ग्राम में हुआ था। ... सूरदास को बल्लभाचार्य जी से दीक्षा प्राप्त हुई तथा उन्होंने ही सूरदास को आजीवन कृष्ण-लीला का गायन करने हेतु प्रेरित किया । इसके पश्चात् सूरदास पूर्णतया कृष्ण भक्ति में लीन हो गए ।
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हिंदी साहित्य के उद्भट विद्वान्, श्रेष्ठ निबंधकार, गंभीर लेखक तथा सुकवि, हिंदी में ‘वैज्ञानिक’ समीक्षा-पद्धति का प्रादुर्भाव कर आलोचना को समालोचना के रूप में परिवर्तित करनेवाले आलोचक प्रवर पं. रामचंद्र शुक्ल का जन्म बस्ती जिले के अगौना ग्राम में सन् १९४१ की आश्विन पूर्णिमा को हुआ था ।
उन्होंने संस्कृत की शिक्षा घर में तथा एफ.ए. तक की शिक्षा कॉलेज में प्राप्त की थी; किंतु स्वाध्याय द्वारा अनेक भाषाओं के ज्ञाता बने । प्रारंभ में उन्होंने मिशन स्कूल, मिर्जापुर में अध्यापन का कार्य किया । सन् १९५६ में ‘हिंदी शब्द सागर’ के सहायक संपादक नियुक्त हुए ।
लगभग उन्नीस वर्ष तक त्रैमासिक ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का संपादन किया । हिंदू विश्वविद्यालय, काशी में हिंदी के अध्यापक तथा बाद में- आजीवन सन् १९९७ तक- विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के गौरवपूर्ण अध्यक्ष पद पर आसीन रहे ।
आचार्य शुक्ल को ‘काव्य में रहस्यवाद’ निबंध पर हिंदुस्तानी एकेडमी द्वारा ५०० रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । ‘चिंतामणि’ निबंध-संग्रह पर हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा १,२०० रुपए का ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया गया था ।
तुलसी, सूर और जायसी पर लिखी गई इनकी आलोचनाएँ आदर्श रूप में मान्य है । इनकी आलोचना-शक्ति सूक्ष्म और समन्वयात्मक है । इनकी ऐतिहासिक दृष्टि हिंदी साहित्य के किसी विद्यार्थी से छुपी नहीं है । शुक्लजी की आलोचना में खोज, कवि के भावों को समझने की सहानुभूति तथा विद्वत्ता का पूर्ण समावेश है । इस क्षेत्र में शुक्लजी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य साहित्य से कूड़ा-करकट अलग करना था ।
व्यर्थ कागज काले करनेवाले कवियों की उन्होंने बराबर खबर ली । जो अच्छा था उसकी रक्षा, जो बुरा था उसको निकालना उनका ध्येय था । शुक्लजी के पहले आलोचना का स्वरूप रचना अथवा कृति के दोषों को खोजना था । शुक्लजी ने समालोचना-प्रणाली को जन्म देकर आलोचना को प्रगनि पदान की ।
सुक्लजी ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखकर अपनी विद्वत्ता और योग्यता का परिचय दिया । उनके निबंधों में उनके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट दिखाई देती है । उनका कवि-रूप भी हमारे सामने दृष्टिगोचर होता है । उन्होंने ग्रंथों के अनुवाद का कार्य भी किया । यह अनुवाद अंग्रेजी से हिंदी अथवा बँगला से हिंदी में किया गया है ।