सूरदास और तुलसीदास जी की कविताओं का भावार्थ अपने शब्दों में लिखें
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साहित्य में दो पक्ष हैं एक कला पक्ष दूसरा भाव पक्ष -यहाँ सूरदास के भाव पक्ष की विशेषता यह है कि उन्होंने कृष्ण भक्ति का व��्णन किया है Iलेकिन उनका भाव हर हमेशा एक बच्चे की चंचलता कि ओर जाता है I वे एक भक्त कवि हैं जिसमे वात्सल्य रस कि प्रधानता है I जैसे उन्होंने श्री कृष्ण के बालपन का वर्णन किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है
जैसे -
श्री कृष्ण अपनी माता से शिकायत कर रहे हैं
-" मैंया मोरी दाऊ बहुत खिझायो I
मोंसों कहत मोल को लीनो,तोहे जसुमति कब जायो II
गोर ननद ,जसोदा गोरी तुम्कत श्याम शरीर I
चुटकी दै-दै हंसत ग्वाल सब ,सीखे दैत बलबीर II
तू मोहि को मारन सीखी ,दाउहीं कबहूँ खीझे I
मोहन की मुख रिस समेत लखि,जसोमति सुनि-सुनि रीझें II
सुनहूँ कान्हा बलभद्र चबाई ,जनमत ही को धूतI
सूर श्याम मोहि गोधन की सौं,मैं माता तू पूत II
एक बच्चा अपनी माँ से शिकायत कर रहे हैं की बलदाऊ मुझे बहुत चिढाते हैं I बार बार कहते हैं की तुझे जसोदा मैया ने जन्म नहीं दिया I वे दोनों तो गोरे हैं तू काला कैसे हो गया I उनकी इन बात को सुनकर सारे ग्वाल-बाल चुटकी बजाकर हँसते हैं और तुमने भी मुझे ही मारना सिखा है बलदाऊ को कुछ भी नहीं कहती I इसपर माता जसोदा उसे बहलाकर कहती हैं कि बलराम तो जन्म से धूर्त हैं ,मैं गैयों की कसम खाके कहती हूँ मैं माता हूँ और तू पुत्र है I
इसमें कवि का भाव पक्ष ये है कि वे इश्वर की महत्ता को एक साधारण अबोध बालक की तरह प्रस्तुत करते हैं Iबालक का चपल चित होना जितना स्वाभाविक है उससे बढ़कर कवि ने वर्णन किया है जिनकी आँखें नहीं हैं Iअब इससे बड़ा उद्धरण क्या होगा I
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. सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिवाद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है। २. सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है मैया कबहिं बढ़ैगी चौटी?
कितनी बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी। सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।