सूरदास पाठ के आधार पर उद्धव और गोपियों के मध्य हुए संवाद को संवाद रूप में लिखिए।
Answers
Explanation:
गोपियाँ उद्धव को भाग्यवान कहते हुए व्यंग्य कसती है कि श्री कृष्ण के सानिध्य में रहते हुए भी वे श्री कृष्ण के प्रेम से सर्वथा मुक्त रहे। वे कैसे श्री कृष्ण के स्नेह व प्रेम के बंधन में अभी तक नहीं बंधे?, श्री कृष्ण के प्रति कैसे उनके हृदय में अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ? अर्थात् श्री कृष्ण के साथ कोई व्यक्ति एक क्षण भी व्यतीत कर ले तो वह कृष्णमय हो जाता है। परन्तु ये उद्धव तो उनसे तनिक भी प्रभावित नहीं है प्रेम में डूबना तो अलग बात है।
Answer:
पाठ्यपुस्तक में महाकवि सूरदास के छ: पद संकलित हैं। इन पदों में गोपियों के विरह व्यथित हृदय की भावनाएँ व्यक्त हुई हैं|
Explanation:
उद्धव के मुख से कृष्ण का योग सन्देश सुनकर गोपियों को बड़ा आघात लगा और उन्होंने अपनी भावनाएँ उद्धव तथा कृष्ण पर व्यंग्य करते हुए व्यक्त। गोपियाँ उद्धव के योग उपदेश को कड़वी ककड़ी के समान बताती हैं। श्रीकृष्ण द्वारा अपनी उपेक्षा और कुब्जा से प्रेम पर व्यंग्य करती हैं। उद्धव, अक्रूर और कृष्ण के काले रंग पर चुटकी लेती हैं। अपनी आँखों की करुण दशा का वर्णन करती हैं। निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपहास करती हैं और वियोग से पीड़ित अपने मन की व्यथा का वर्णन करते हुए उद्धव ने कृष्ण को अपनी दयनीय दशा सुनाने का आग्रह करती हैं।
व्याख्या-गोपियाँ उद्धव से कहती हैं-: हे उद्धव! श्रीकृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान हैं। जैसे हारिल पक्षी अपने पंजों में पकड़ी हुई टहनी को एक बार के लिए भी अपने से अलग नहीं करता, उसी प्रकार हमारे कृष्ण प्रेमी हृदयों से कृष्ण का ध्यान एक पल के लिए भी नहीं हट पाता है। जागते, सोते, स्वप्न में और प्रत्यक्ष में हमारे हृदय निरन्तर कृष्ण-कृष्ण की ही रट लगाए रहते हैं। हम एक क्षण के लिए कृष्ण का वियोग सहन नहीं कर सकतीं। आपके योग साधना के उपदेश कान में पड़ते ही हमारे हृदय उसी तरह वितृष्णा से भर जाते हैं, जैसे कड़वी ककड़ी चखते ही मुँह कड़वाहट से भर जाता है।
गोपियाँ: हे उद्धव! आप कड़वी ककड़ी जैसे इस योगरूपी रोग को हमारे लिए ले आए हैं। हमने आज तक इस व्याधि को न देखा है, न सुना है और न कभी इसे किया है।
गोपियाँ: उद्धव! आप इस योग के रोग की शिक्षा उन लोगों को दीजिए जिनके मन अस्थिर हैं। जिनमें दृढ़ प्रेमभाव का अभाव है।
गोपियाँ: आप तो ज्ञानी हैं। तनिक बताइए जिस परब्रह्म श्रीकृष्ण को वेदों के अध्ययन कर्ता, ध्यानस्थ योगी और ज्ञानी मुनि जन भी प्राप्त नहीं कर पाते, वे ही कृष्ण गोपों की बस्तियों में आकर क्यों रहे? केवल गोप-गोपियों की भक्ति और प्रेम के कारण वह निराकार-निर्गुण ब्रह्म सगुण साकार होकर इस ब्रजभूमि में अवतरित हुआ है। अब आप सब छोड़कर यही बता दीजिए कि आप जैसे ज्ञानी और योगी जिसे मुक्ति की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, वह किसकी दासी है? वह भक्ति की दासी है। हम ब्रजवासी प्रेम और भक्ति के उपासक हैं। हमें मुक्ति की आकांक्षा नहीं। अब आपके पैर छूकर : हमारी यही प्रार्थना है कि आप अपनी योग कथा को बार-बार न सुनाएँ। हमारा तो स्पष्ट और दृढ़ मत है कि श्रीकृष्ण को छोड़ जो व्यक्ति किसी अन्य की उपासना करता है, वह अपनी माता को ही तुच्छ बनाकर लजाता है।