Math, asked by yugpratap10, 2 months ago

संस्कृत के महत्व पर प्रकाश डालें​

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Answered by anwarshahidgul0143
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Step-by-step explanation:

संस्कृत भाषा संसार की प्राचीनतम एवं प्रथम भाषा है। इस भाषा में ही सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने वेदों का ज्ञान

दिया था। हमने एक लेख में यह विचार किया था कि क्या ईश्वर के अपने निज प्रयोग की भी क्या कोई भाषा है?

इसके समाधान में हमारा निष्कर्ष यह था कि ईश्वर भी अपने कार्यों को सम्पादित करने में किसी न किसी भाषा का

प्रयोग करता है और वह भाषा वेदों की भाषा “वैदिक-अलौकिक संस्कृत” ही हो सकती है जिसका दिग्दर्शन वेदों के

अध्ययन करने पर होता है। वेदों की भाषा ईश्वर की अपनी भाषा है जिसमें उसने मनुष्य आदि की तिब्बत में सृष्टि

कर उन्हें चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान स्व-निर्दिष्ट नाम वाले अग्नि, वायु, आदित्य व

अंगिरा को दिया था। महर्षि दयानन्द ने इस प्रश्न कि चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान अर्थात् इनकी भाषा व शब्द-

अर्थ-सम्बन्ध आदि का ज्ञान उन ऋषियों को किसने कराया? इसका तर्क व प्रमाण युक्त उत्तर महर्षि दयानन्द ने

सत्यार्थ प्रकाश में यह कह कर दिया है कि ईश्वर ने ही उन चारों ऋषियों को वेदों मे मन्त्रों के अर्थ जनाये। माता-पिता

सन्तान को जन्म देते हैं। जन्म के समय बच्चे का शरीर व इसकी इन्द्रियां भाषा समझने, सीखने व बोलने में समर्थ

नहीं होतीं। इनकी स्थिति के अनुसार माता-पिता बच्चे को गोद में लेकर उन्हीं के स्तर के अनुसार अपनी भाषा के

शब्द व लोरियां आदि बोलकर धीरे-धीरे ज्ञान कराते हैं। कुछ ही दिनों में वह अपने माता-पिता की आवाज व उनके

शब्दों को समझने लगता है व उन पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया अपने व्यवहार व हाव-भाव से देता है। यह क्रम

चलता है और बच्चा अपनी माता की भाषा को समझने लगता है और जब उसकी वाक् इन्द्रिय 6 माह व उसके बाद

कुछ बोलने के योग्य हो जाती है तो वह शब्दोच्चार भी आरम्भ कर देता है। समय के साथ उसकी भाषा में सुधार होता रहता है। 3 से 5 या 7 वर्ष की वय में उसकी यह स्थिति हो जाती है कि अब उसे किसी भी भाषा का ज्ञान यदि

कराया जाये तो वह धीरे-धीरे सीख जाता है, वह चाहे हिन्दी हो, अंग्रेजी हो, संस्कृत हो या फिर संसार व किसी देश की अन्य कोई सी भी भाषा।

संस्कृत ऐतिहासिकता की दृष्टि से संसार की सभी भाषाओं की जननी है। इस प्रकार से वेदों की संस्कृत संसार के सब मनुष्यों के सभी प्राचीन ऋषियों व पूर्वजों की मातृ भाषा थी और ईश्वर ही प्रथम पीढ़ी व बाद के सभी मनुष्यों को भाषा व वेदों का ज्ञान देने वाली माता सिद्ध होती है। संस्कृत का महत्व इस कारण भी है कि इसके ज्ञान से सृष्टि के आरम्भ में, जो कि लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई, उस समय व उसके बाद के संसार के लोगों के आचार-विचार, धर्म व संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। यद्यपि वेदों में इतिहास न होकर शुद्ध ज्ञान व विज्ञान का ही भण्डार है जिसे हमारे वेदज्ञानी ऋषि ज्ञान-कर्म-उपासना में वर्गीकृत करते हैं। इस स्थिति में भी यह तो ज्ञात होता ही है कि महाभारत काल से पूर्व घटने वाली ऐतिहासकि घटनायें वैदिक विचारधारा और विपरीत विचारों के लोगों का द्वन्द हुआ करता रहा होगा। संसार में सदा से ही अच्छाई व बुराई दो प्रकार की विचारधारायें रही हैं। दोनों में समय-समय पर संघर्ष होता आया है और अन्तोगत्वा सत्य की विजय तथा असत्य की पराजय होती आई है। रामायण व महाभारत का अध्ययन कर यही अनुभव हमें होता है। आज भी यदि हम अपने धर्म व कर्तव्यों के क्षेत्र में सत्य की खोज करें और सत्य को ग्रहण करें व असत्य का त्याग कर दें तो इससे मानव जाति का अनन्य उपकार व कल्याण हो सकता है। यदि सत्य के प्रति उपेक्षा का भाव रखेंगे, जैसा कि आजकल दिखाई देता है, तो इससे सभी का कल्याण नहीं हो सकता है। आजकल सत्य का सर्वत्र व्यवहार न होने के कारण अशान्ति व दुःख का वातावरण विद्यमान है। इस समस्या का हल केवल व केवल वेदों का सत्य ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार समाज की संरचना का गुण-कर्म व स्वभाव के अनुसार सुधार करना ही है। कोई अन्य मार्ग मानवजाति के कल्याण नहीं है। यही कार्य महर्षि दयानन्द ने अपने समय में मनसा-वाचा-कर्मणा किया था। इस कारण से संस्कृत का संरक्षण, संवर्धन, प्रचार और प्रसार अति आवश्यक है। यह संसार के प्रत्येक मनुष्य का नैतिक व मुख्य कर्तव्य भी है।

आज संसार में अनेकानेक भाषायें हैं। संसार के लोग अपनी-अपनी पसन्द की भाषा का प्रयोग करते हैं। इससे उन्हें अपनी बात दूसरों को बताने व समझाने में आसानी होती है व दूसरों की बातें समझने में भी लाभ होता है। यदि दो भिन्न-भिन्न भाषा वाले व्यक्ति परस्पर बात करना चाहें और अपनी-अपनी भाषा बोलें तो दोनों को ही एक-दूसरे को समझना सम्भव नहीं होता। दोनों में से एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की भाषा आनी चाहिये तभी, उस एक दूसरे को समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग करने पर, परस्पर व्यवहार किया जा सकता है।

Answered by anshi760586
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Answer:

संस्कृतम् एकतमा अतिप्राचीना समृद्धा शास्त्रीया च भाषा वर्तते। संस्कृतं भारतस्य जगत: वा भाषास्वेकतमा‌ प्राचीनतमा। संस्कृता वाक्, भारती, सुरभारती, अमरभारती, अमरवाणी, सुरवाणी, गीर्वाणवाणी, गीर्वाणी, देववाणी, देवभाषा, दैवीवाक्‌ इत्यादिभिः नामभिः एषा भाषा प्रसिद्धा।

भारतीयभाषासु बाहुल्येन संस्कृतशब्दाः उपयुक्ताः। संस्कृतात् एव अधिका भारतीयभाषा उद्भूताः। तावदेव भारत-युरोपीय-भाषावर्गीयाः अनेकाः भाषाः संस्कृतप्रभावं संस्कृतशब्दप्राचुर्यं च प्रदर्शयन्ति।

व्याकरणेन सुसंस्कृता भाषा जनानां संस्कारप्रदायिनी भवति। अष्‍टाध्‍यायी इति नाम्नि महर्षिपाणिनेः विरचना जगतः सर्वासां भाषाणाम् व्याकरणग्रन्थेषु अन्यतमा, वैयाकरणानां भाषाविदां भाषाविज्ञानिनां च प्रेरणास्‍थानम् इवास्ति।

संस्कृतवाङ्मयं विश्ववाङ्मये अद्वितीयं स्थानम् अलङ्करोति। संस्‍कृतस्‍य प्राचीनतमग्रन्‍थाः वेदाः सन्‍ति। वेद-शास्त्र-पुराण-इतिहास-काव्य-नाटक-दर्शनादिभिः अनन्तवाङ्मयरूपेण विलसन्ती अस्ति एषा देववाक्। न केवलं धर्म-अर्थ-काम-मोक्षात्मकाः चतुर्विधपुरुषार्थहेतुभूताः विषयाः अस्याः साहित्यस्य शोभां वर्धयन्ति अपितु धार्मिक-नैतिक-आध्यात्मिक-लौकिक-वैज्ञानिक-पारलौकिकविषयैः अपि सुसम्पन्ना इयं दववाणी।

इतिहास:

इयं भाषा न केवलं भारतस्‍य अपि तु विश्वस्य प्राचीनतमा भाषा इति मन्यते। इयं भाषा तावती समृद्धा अस्ति यत् प्राय: सर्वासु भारतीयभाषासु न्‍यूनाधिकरूपेण अस्‍या: शब्‍दा: प्रयुज्‍यन्‍ते. अत: भाषाविदां मतेन इयं सर्वासां भाषाणां जननी मन्‍यते। पुरा संस्कृतं लोकभाषा आसीत्‌। जना: संस्कृतेन वदन्ति स्म॥

विश्‍वस्‍य आदिम: ग्रन्‍थ: ऋग्‍वेद: संस्‍कृतभाषायामेवास्‍ति। अन्‍ये च वेदा: यथा यजुर्वेद:, सामवेद:, अथर्ववेदश्‍च संस्‍कृतभाषायामेव सन्‍ति। आयुर्वेद-धनुर्वेद-गन्‍धर्ववेदार्थवेदाख्‍या: चत्‍वार: उपवेदा: अपि संस्‍कृतेन एव विरचिता:॥

सर्वा: उपनिषद: संस्‍कृते उपनिबद्धाः । अन्‍ये ग्रन्‍था: - शिक्षा, कल्‍प:, निरुक्तम्, ज्‍यौतिषम्, छन्‍द:, व्‍याकरणम्, दर्शनम्, इतिहास:, पुराणं, काव्‍यं, शास्‍त्रं चेत्यादयः ॥

महर्षि-पाणिनिना विरचित: अष्‍टाध्‍यायी इति संस्‍कृतव्‍याकरणग्रन्थ: अधुनापि भारते विदेशेषु च भाषाविज्ञानिनां प्रेरणास्‍थानं वर्तते ॥

वाक्यकारं वररुचिं भाष्यकारं पतञ्जलिम् | पाणिनिं सूत्रकारं च प्रणतोऽस्मि मुनित्रयम्

लिपि:

अनेकेषु लिपिषु संस्कृतम्

संस्‍कृतलेखनं पूर्वं सरस्वतीलिप्या आसीत्‌| कालान्‍तरे एतस्‍य लेखनं ब्राह्मीलिप्या अभवत्। तदनन्तरम् एतस्य लेखनं देवनागर्या आरब्धम् ।

अन्‍यरूपान्‍तराणि अधोनिर्दिष्टनि सन्‍ति -- बाङ्गलालिपिः, शारदालिपिः, तेलुगुलिपिः, तमिळलिपिः, यव-द्वीपलिपि:, कम्‍बोजलिपिः, कन्नडलिपिः, नेपाललिपिः, मलयाळमलिपिः, गुजरातीलिपिः, इत्यादय: ॥

मूलतो यस्मिन् प्रदेशे या लिपिर्जनैर्मातृभाषां लेखितुमुपयुज्यते तस्मिन्प्रदेशे तया एव लिप्या संस्कृतमपि लिख्यते। पूर्वं सर्वत्र एवमेव आसीत्, अत एव प्राचीना: हस्तलिखितग्रन्था; अनेकासु लिपिषु लिखिता: सन्ति । अर्वाचीने काले तु संस्कृतग्रन्थानां

संस्कृतभाषाप्रभावः

संस्कृतभाषाया शब्दाः मूलरूपेण सर्वासु भारतीयभाषासु लभ्यन्ते। सर्वत्र भारते भाषाणामेकतायाः रक्षणमपि केवलं संस्‍कृतेनैव क्रियमाणाम् अस्ति। अस्‍यां भाषायां न केवलं भारतस्‍य अपि तु निखिलस्‍यापि जगतः मानवानां कृते हितसाधकाः जीवनोपयोगिनः सिद्धान्‍ताः प्रतिष्‍ठापिताः सन्‍ति। इयमेव सा भाषा यत्र ध्‍वनेः लिपेश्‍च सर्वत्रैकरूपता वर्तते।

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