सास्मृतिक इष्टि से हिंदी का क्या म्हेन्डे
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Explanation:
सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-
(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और
(2) संस्कृति विशेष के व्यापक तत्वों को समाहित करने वाली भाषा।
प्रस्तुत संदर्भ में सांस्कृतिक भाषा का दूसरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा हे। विगत सौ वर्षों में, मुख्यतः स्वातंयोत्तर काल में हिन्दी भाषा का एकाधिक दृष्टियों से विकास हुआ है। राष्ट्रभाषा के रूप में तो इसके विकास से सभी परिचित है। किंतु विशेष प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के कारण आज ‘राजभाषा हिन्दी’, ‘कामकाजी हिन्दी’, तकनीकी हिन्दी जैसे अनेक शब्द चल पड़े है जो उसके निरंतर विकासमान स्वरूप के परिचायक हैं। हिन्दी के ये सभी रूप उसके मानक रूप के आधार पर निर्मित हुए हैं जिनसे भाषा की आंतरिक संरचना भी प्रभावित हुई है।
देखना यह है कि सांस्कृतिक प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए हिन्दी का किस प्रकार प्रयोग हुआ है और इन प्रयोगों ने उसकी संरचना को कहाँ तक प्रभावित किया है।
भारतीय संस्कृति के एकाधिक तत्वों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति हिन्दी में प्राचीन काल से ही लक्षित होने लगती है। इसी गुण के कारण मध्ययुगीन साधु संतों से उसे सार्वदेशिक रूप प्रदान किया था। ब्रजभाषा गुजरात से लेकर असम तक भारतीय संस्कृति की संवाहिका बनी थी और अवधी कोसल जनपद को लाँघकर छत्तीसगढ़ तक फैल गई थी। आधुनिक काल में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा होने पर इसने भी सार्वजनिक होने का प्रयास किया और यह अखिल भारतीय राजकाज की भाषा बन गई। इस समय यह ‘नागर संस्कृति’ के साथ साथ 'लोक संस्कृति’ को भी उजागर करती है। आधुनिक हिन्दी लेखन द्वारा खड़ी बोली हिन्दी के इस सांस्कृतिक स्वरूप का जो निखार और परिष्कार हुआ है, उसी का यहाँ पर्यवेक्षण किया जा रहा है।
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