संसदीय लोकतंत्र में तीन मुख्य संस्थाएं
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मारे संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति या दूसरी प्रणालियों के बरक्स देश हित में इसे चुना और यह कारगर साबित हुई, लेकिन कई चुनौतियां भी उभरीं, लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराना खास समाधान नहीं”
नब्बे के दशक में जब हमारी अर्थव्यवस्था उदारीकरण की ओर मुड़ चली तो प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री प्रो. डी.टी. लकड़वाला की अगुआई में एक समिति ने देश में गरीबी के हालात पर अपनी रिपोर्ट 1993 में पेश की। इससे पता चला कि 1947 में गरीबी का स्तर 80 प्रतिशत से ज्यादा था, जो 1987 में घटकर 39 प्रतिशत पर आ गया (अब यह आंकड़ा 20 प्रतिशत है)। इससे एक बार फिर यह साबित हुआ कि हमने आजादी के बाद जो संवैधानिक और लोकतांत्रिक, सामाजिक-आर्थिक बदलाव का रास्ता चुना, वह एकदम सही है।
ये बदलाव संसदीय सरकार की संस्थाओं के तहत संभव हुए, जिसमें देश के लोगों की संप्रभु इच्छा संसद में बहस, तर्क-वितर्क के जरिए जाहिर होती है और कार्यपालिका को अपने फैसलों पर अमल करने के लिए जवाबदेह बनाती है।
सत्तर साल पहले हम आजाद हुए और अड़सठ साल पहले अपना एक संविधान बनाया। हमारा यह संविधान ब्रिटेन की संसद से नहीं हासिल हुआ, न ही यह किसी धर्म संहिता पर आधारित है। भारत के लोगों के संकल्प की प्रतिनिधि संप्रभु संविधान सभा ने संविधान बनाया जिसकी प्रस्तावना ने हमारी आगे की दिशा तय की। उसने देश के लोगों, जन-प्रतिनिधियों और संस्थाओं को ऐसे राष्ट्र निर्माण का दायित्व सौंपा जिसमें हर नागरिक को “न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे” की गारंटी हो। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संविधान सभा में काफी सोच-विचार और बहस-मुबाहिशों के बाद हमने संसदीय व्यवस्था की सरकार चुनी। कई तरह के मॉडल और प्रारूप उपलब्ध थे। उन्मुक्त बाजार उदार लोकतंत्र, केंद्रीकृत राष्ट्रपति प्रणाली, साम्यवाद का बेहद मोहक रोमांटिक विचार, फेबियन समाजवाद जैसे कई स्वाभाविक विकल्प मौजूद थे। हालांकि हमने हर निर्वाचन क्षेत्र से एक सदस्य वाली संसदीय प्रणाली का चुनाव किया, परंतु सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन के इसके लक्ष्य क्रांतिकारी हैं।
यह कहना तो आसान है कि संसदीय व्यवस्था की सरकार दरअसल औपनिवेशिक शासकों की वेस्टमिनिस्टर प्रणाली की ही स्वाभाविक परिणति है, लेकिन यह इतना सरल भी नहीं था। हमने जो राजनैतिक व्यवस्था अपनाई, वह उदारवाद और बाजार अर्थव्यवस्था के पश्चिमी विचारों को महज अंगीकार करना नहीं था। हमारी संस्थाएं भारतीय धरती में पैदा और विकसित हुई हैं, जहां वैदिक काल से ही गणराज्यों, स्वशासी संस्थाओं और प्रातिनिधिक विमर्श संस्थाओं के अनुभव फलते-फूलते रहे हैं।
प्रतिनिधित्व वाली राज व्यवस्था का हमारा स्वदेशी अनुभव लिछिवी, कपिलवस्तु, पावा, कुशीनारा, रामग्राम, सनसमागिरी, पिफली, सुपुता, मिथिला और कोलांगा गणराज्यों का रहा है। ये गणराज्य ईसा पूर्व छठवीं सदी से देश के विभिन्न हिस्सों में ईस्वी सन 400 तक कायम रहे हैं। इन गणराज्यों की सभा, समितियां और गणपति ही हमारे आज के जमाने में क्रमश: संसद, मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री के रूप में अभिव्यक्त हो रहे हैं। यहां तक कि हमारे सम्राट भी अपने मंत्रिपरिषदों के मुखिया की तरह हुआ करते थे, जो “धर्म” से बंधे थे। धर्म, जिसे आज के दौर में कानून का शासन, सीमित प्रशासन और संवैधानिक व्यवस्था का पर्याय माना जा सकता है। सातवीं सदी में इस्लामी आक्रमण और उसके बाद ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौर में सत्ता का यह प्रातिनिधिक चरित्र खत्म हो गया मगर ग्रामसभा और पंचायतें ग्रामीण स्तर पर काम करती रहीं।
इस सबके बावजूद मेरी राय में, हमारे पुरखों के जेहन में संसदीय प्रणाली की सरकार के चयन में औपनिवेशिक काल में सीमित संसदीय परंपराओं का भी असर रहा है।
भारत के लोगों की पहली प्रतिनिधि संस्था संविधान सभा ने अपना महती कार्य नौ दिसंबर 1946 को शुरू किया। संविधान सभा के सदस्यों का परोक्ष चुनाव प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों ने किया था। ब्रिटिश संसद में पारित भारतीय स्वतंत्रता कानून, 1947 में संविधान सभा को पूर्ण संप्रभु घोषित किया गया और इसके साथ ही सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली और काउंसिल ऑफ स्टेट्स का वजूद 14 अगस्त 1947 से खत्म हो गया। 14-15 अगस्त की आधी रात को जब हम स्वतंत्र हुए तो संविधान सभा के पास संपूर्ण अधिकार आ गए और वह आजाद भारत की विधायी सभा बन गई। संविधान सभा के दो दायित्वों संविधान निर्माण और विधि-विधान को स्पष्ट तौर पर अलग किया गया और विधि-विधान की संविधान सभा ने 17 नवंबर 1947 से काम कराना शुरू किया।