स्त्री शिक्षा एवं नारी सशक्तिकरण के समक्ष कठिनाई
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स्त्री शिक्षा स्त्री और शिक्षा को अनिवार्य रूप से जोड़ने वाली अवधारणा है। इसका एक रूप शिक्षा में स्त्रियों को पुरुषों की ही तरह शामिल करने से संबंधित है। दूसरे रूप में यह स्त्रियों के लिए बनाई गई विशेष शिक्षा पद्धति को संदर्भित करता है। भारत में मध्य और पुनर्जागरण काल के दौरान स्त्रियों को पुरुषों से अलग तरह की शिक्षा देने की धारणा विकसित हुई थी। वर्तमान दौर में यह बात सर्वमान्य है कि स्त्री को भी उतना शिक्षित होना चाहिये जितना कि पुरुष हो। यह सिद्ध सत्य है कि यदि माता [1] शिक्षित न होगी तो देश की सन्तानो का कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
संस्कृत में यह उक्ति प्रसिद्ध है- ‘नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति मातृ समोगुरु:’. इसका मतलब यह है कि इस दुनिया में विद्या के समान क्षेत्र नहीं है और माता के समान गुरु नहीं है।’ यह बात पूरी तरह सच है। बालक के विकास पर प्रथम और सबसे अधिक प्रभाव उसकी माता का ही पड़ता है। माता ही अपने बच्चे को पाठ पढ़ाती है। बालक का यह प्रारंभिक ज्ञान पत्थर पर बनी अमिट लकीर के समान जीवन का स्थायी आधार बन जाता है। लेकिन आज पूरे भारतवर्ष में इतने असामाजिक तत्व उभर आए हैं, जिन्होंने मां-बहनों का रिश्ता खत्म कर दिया है और जो भोग-विलास की जिंदगी जीना अधिक उपयोगी समझने लगे हैं। यही कारण है कि कस्बों से लेकर शहरों की मां-बहनें असुरक्षित हैं।
असुरक्षा के कारण ही बलात्कार और सामूहिक बलात्कार जैसी अनेक घटनाओं के जाल में फँसकर महिलाओं का जीवन नर्क बन चुका है। वास्तव में कहा जाता है कि महिलाओं की शिक्षा, किसी भी पुरुष की शिक्षा से कम महत्वपूर्ण नहीं है। समाज की नई रूपरेखा तैयार करने में महिलाओं की शिक्षा पुरुषों से सौ गुना अधिक उपयोगी है। इसलिए स्त्री शिक्षा के लिए सरकार को प्रयासरत होना चाहिए। तभी अत्याचार जैसी घटनाओं पर काबू पाया जा सकता है।
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