Hindi, asked by GeniusMayank, 8 months ago


'संतोष परम धर्म' विषय पर अनुच्छेद लिखिए।​

Answers

Answered by HarshitaGoel
17

Answer:

संतोष मानव जीवन का पर्याय है। संसार के समस्त सुखों को त्याग कर संतोष को परम सुख मानकर आदर्श स्थापित करना सरल नहीं है। संतोष की भावना न आने तक शांति नहीं मिलती। सब सुख पाने के बाद भी संतोष न आने पर जीवन अशांत बन जाता है।कष्ट, भूख और विपन्नता में रहने के बावजूद संतोष में परम आनंद मिलता है। संतोष और सहनशीलता के कारण ही भारतीय संस्कृति अत्यंत उदात्त और गरिमा मंडित है।

केवल संपन्नता और धन की खोज करने वाले संतोष की झलक से अपना व्यक्तित्व दूर रखते हैं। मनुष्य के जीवन में एक बार भी संतोष आ जाने पर संपूर्ण जीवन अनन्य सुख और परम शांति से ओतप्रोत हो जाता है।सागर की गहराई से निकाले गए मोती के समान संतोष का दुर्लभ सुख होता है। संतोष जहां ऊंचाई प्रदान करने वाला सात्विक तत्व है वहीं असंतोष पतन का मार्ग खोलता है। इसलिए मनुष्य को संतोष की भावना से सकारात्मक दिशा मिलती है। संतोष का फल सदा मीठा रहता है। संतोष का तात्पर्य ऐसे आत्मबल से है, जिसके कारण व्यक्ति क्रोध, लोभ, काम और मोह की प्रवृत्तियों से उच्चता पाकर आत्मिक सुख के पास जा पहुंचता है।निष्काम कर्म करते हुए फल की इच्छा-अनिच्छा से दूर निकल जाता है। असीम धैर्य आ जाने पर आत्म संतोष स्वयं आ जाता है। संतोष के दो रूप हैं-वाह्य संतोष और आत्म संतोष। वाह्य संतोष में मनुष्य पूर्णत: संतोषी नहीं बन पाता, परंतु आत्म संतोष प्राप्त हो जाने पर व्यक्ति निष्कपट, निश्छल और निष्काम बनकर परम संतोषी की स्थिति पा जाता है। परम संतोषी आत्म ज्ञान की ज्योति से आलोकित हो जाता है। आत्मा-परमात्मा की दूरी कम हो जाती है। आत्म संतोषी जीवन के सुख-दुख में अपना संतोष नहीं खोता और लाभ-हानि यश, अपयश जीवन-मरण में पूर्ण धैर्य और तटस्थ भाव से चलता है। प्राचीन संस्कृति का मूलमंत्र संतोष सच्चा सुख है। भौतिकता में मनुष्य संतोष जैसे सच्चे मोती की आभा से दूर है।लोभ और स्वार्थ की भावना हटाकर संतोष धारण करना है। विषम परिस्थितियों में मनुष्य को संतोष ही प्रत्येक परिस्थिति में जीवन जीने का संबल देता है। संतोष सरलता से नहीं आता। संतोष प्राप्ति के लिए जीवन में अत्यंत धैर्य, त्याग और तप साधना करनी पड़ती है। सुख का सागर संतोष ही है।

Explanation:

HOPE THAT IT WILL HELP U!!

Answered by mapooja789
2

Given: 'संतोष परम धर्म' विषय पर अनुच्छेद

Answer:

शांति के समान कोई तप नहीं और संतोष से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सुख के लिए विश्व में सभी जगह चाहत है, पर सुख उसी को मिलता है, जिसे संतोष करना आता है। एक जिज्ञासा उठती है कि संतोष है क्या?

तो संतोष का अभिप्राय है -'इच्छाओं का त्याग।' सभी इच्छाओं का त्याग करके अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुख को प्राप्त कर लेना है। जीवन के साथ इच्छाएं, कामनाएं व आकांक्षाएं रहती ही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि सुखी जीवन के लिए हमारी इच्छा शक्ति पर कहीं तो विराम होना चाहिए जी हां इच्छा के वेग में विराम को ही संतोष की संज्ञा दे सकते हैं। संतोष मन की वह वृत्ति या अवस्था है, जिसमें मनुष्य पूर्ण तृप्ति या प्रसन्नता का अनुभव करता है, अर्थात इच्छा रह ही नहीं पाती।

अत: हम प्रयत्न और परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली प्रसन्नता पर संतोष करना सीखें। निष्काम कर्म-योग, इच्छाओं का दमन, लोभ का त्याग या इंद्रियों पर अधिकार-यह सभी उपदेश संतोष की ओर ले जाने वाले सोपान ही तो हैं। भारतीय संस्कृति संतोष पर ही आधारित है।

#SPJ2

Similar questions