स्थानीय नागरिको को किन-2 मालिक कर्तव्यो
की जानकारी हा
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Explanation:
अधिकार और कर्तव्य का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। वस्तुत: अधिकार और कर्तव्य एक ही पदार्थ के दो पार्श्व हैं। जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति का अमुक वस्तु पर अधिकार है, तो इसका दूसरा अर्थ यह भी होता है कि अन्य व्यक्तियों का कर्तव्य है कि उस वस्तु पर अपना अधिकार न समझकर उसपर उस व्यक्ति का ही अधिकार समझें। अत: कर्तव्य और अधिकार सहगामी हैं। जब हम यह समझते हैं कि समाज और राज्य में रहकर हमारे कुछ अधिकार बन जाते हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि समाज और राज्य में रहते हुए हमारे कुछ कर्तव्य भी हैं। अनिवार्य अधिकारों का अनिवार्य कर्तव्यों से नित्यसंबंध है।
फ्रांस के क्रांतिकारियों ने लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को संसार में प्रसारित किया था। समता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, ये क्रांतिकारियों के नारे थे ही। जनसाधारण को इनका अभाव खटकता था, इनके बिना जनसाधारण अत्याचार का शिकार बन जाता है। आधुनिक संविधानों ने नागरिकों के मूल अधिकारों की घोषणा के द्वारा उपर्युक्त राजनीतिदर्शन को संपुष्ट किया है। मनुष्य की जन्मजात स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान की गई है, स्वतंत्र जीवनयापन के अधिकार और मनुष्यों की समानता को स्वीकार किया है। आज ये सब विचार मानव जीवन और दर्शन के अविभाज्य अंग हैं। आधुनिक संविधान निर्माताओं ने नागरिक के इन मूलअधिकारों को संविधान में घोषित किया है। भारतीय गणतंत्र संविधान ने भी इन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
सी.डी. बर्न्स की उक्ति है, फ्रांस की क्रांति ने कोई दान नहीं माँगा, उसने मनुष्य के अधिकारों की माँग की। अधिकार ऐसी अनिवार्य परिस्थिति है जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है। यह व्यक्ति की माँग है जिसे समाज, राज्य तथा कानून नैतिक मान्यता देते हें और उनकी रक्षा करना अपना परम धर्म समझते हैं। अधिकार वे सामाजिक परिस्थितियाँ तथा अवसर हैं जो मनुष्य के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास के लिए आवश्यक होते हैं। इन्हें समाज इसी कारण से स्वीकार करता है और राज्य इसी आशय से इनका सरंक्षण करता है। अधिकार उन कार्यों की स्वतंत्रता का बोध कराता है जो व्यक्ति और समाज दोनों के ही लिए उपयोगी सिद्ध हों।
१७वीं और १८वीं शताब्दी के यूरोपीय राजनीतिज्ञों का यह अटल विश्वास था कि मनुष्य के अधिकार जन्मसिद्ध तथा उनके स्वभाव के अंतर्गत हैं। वे प्राकृतिक अवस्था में, जब समाज की स्थापना नहीं हुई थी तो तब, मनुष्य को प्राप्त थे। एथेंस के महान् विचारक अरस्तू का भी यही विचार था। १७८९ में फ्रांस की क्रांति के उपरांत फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा की। जिन मौलिक तत्वों को लेकर फ्रांस ने क्रांति का कदम उठाया था उन्हीं सब तत्वों का समावेश इस घोषणा में किया गया था। इस घोषणा के परिणामस्वरूप ्फ्रांस के समाजिक, राजनीतिक एवं मनोवैज्ञानिक जीवन में और तज्जनित सिद्धांतों में परिवर्तन हुआ। मानवीय अधिकारों की घोषणा का प्रभाव आधुनिक संविधानों पर स्पष्ट ही है। यूरोपीय जीवन, विचार, इतिहास और दर्शन पर इस घोषणा की अमिट छाप है। इस घोषणा से प्रत्येक मनुष्य के लिए स्वतंत्रता, संपत्तिसुरक्षा एवं अत्याचार का विरोध करने के अधिकार को मौलिक अधिकार की मान्यता प्रदान की गई। मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा का बड़ा व्यापक प्रभाव रहा है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक अर्थात् मनुष्य जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों पर इन विचारों का प्रभाव सुस्पष्ट है। समाजवादी दर्शन ने इन अधिकारों का क्षेत्र और भी विस्तृत कर दिया है। सोवियत संघ ने अपने सामाजिक अधिकारों में इन अधिकारों को प्रमुख स्थान दिया है। सन् १९४६ में जब फ्रांस ने अपने संविधान की रचना की तब इन श्रेष्ठतम अधिकारों को स्थान देते हुए उसने और भी नए सामाजिक अधिकारों का समावेश संविधान की धाराओं में किया। आधुनिकतम सभी संविधानों में इन अधिकारों का समावेश है। नागरिक के मूल अधिकारों में इनकी गणना है। यह जाति और नरनारी की समानता का युग है। नागरिक अधिकारों में इन्हें भी स्थान प्राप्त हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इन मानवीय अधिकारों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर एक विस्तृत सूची बनाई। नागरिक अधिकारों के संबंध में बदलती हुई समाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया की छाप उसपर स्पष्ट है। १० दिसम्बर १९४८ को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी साधारण सभा में सार्वभौम मानवीय अधिकारों को घोषित किया। यह सूची ४८ सदस्य राज्यों के बहुमत से पारित हुई। मनुष्य जीवन के जितने भी आधुनिक मूल्य हैं उन सारे मूल्यों का समाहार इस सूची में किया गया है।