स्थानीय प्रशासन विकास कैसे हुआ
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भारत का संविधान- परिचय एवं व्याख्या संविधान सामान्य अध्ययन
भारत में स्थानीय स्वशासन: नगर प्रशासन Local Self-Government In India: Municipal Administration
September 1, 2015 admin 38746 Views 0 Comment
प्राचीन भारत में नगरीय प्रशासन के विद्यमान होने का भी उल्लेख मिलता है। मैगस्थनीज ने ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी के भारत में एक नगर के शासन का अपने विवरण में उल्लेख किया है। उस विवरण से पता चलता है कि प्राचीन काल के नगरीय शासन की 5-5 सदस्यों की 6 समितियों में विभाजित किया हुआ था। इससे यह विदित होता है कि प्राचीन भारत में आज की भांति ही स्थानीय शासन की नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजित किया हुआ था।
ब्रिटिश भारत में 1687 में अंग्रेजों के द्वारा मद्रास नगरकी स्थापना की गई थी, जिसे स्वायत्त शासन का श्रीगणेश माना जाता है। इस समय बम्बई एवं कलकत्ता नगर में नगरपालिका की स्थापना की गई। सन् 1840 और 1850 के मध्य प्रेसीडेन्सी शहरों में नगरीय स्थानीय प्रशासन के संगठन और कार्यों का विस्तार ही नहीं किया गया अपितु कुछ सीमा तक निर्वाचन का सिद्धांत इन संस्थाओं के लिए अपनाया गया।
1935 के भारत सरकार अधिनियम के पारित होने के पश्चात् प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना हुई। नगरपालिकाओं के विचार-विमर्शकारी और कार्यकारी निकायों को पृथक्-पृथक् किया गया। मध्य प्रदेश, बम्बई तथा उत्तर प्रदेश में नगरपालिकाओं की समस्याओं पर विचार करने तथा उनमें सुधार के लिए सुझाव देने के लिए समितियां नियुक्त की गई। इस काल में मद्रास में 1930 और 1933 में दो महत्वपूर्ण अधिनियम बनाए गए। जिला बोडों के कार्य क्षेत्र का विस्तार किया गया तथा जिलाधीश को जिला बोर्ड का प्रमुख कार्याधिकारी नियुक्त किया गया।
1935-1949 के बीच के समय में नगरपालिकाओं और पंचायतों के कार्यक्षेत्र का विस्तार किया गया। नगरपालिकाओं की विधायनी और कार्यकारी शक्तियों का पृथक्करण किया गया।
स्वतंत्रता के प्रथम दशक में नगरीय स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को एक प्रकार से पृष्ठभूमि में डाल दिया गया किंतु इसका अर्थ कदापि नहीं कि नवीन भारत के निर्माण में नगरीय स्थानीय संस्थाओं का योगदान कम है। नगरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति ने 1961 के दशक में नगरीय स्थानीय संस्थाओं को एक नया महत्व प्रदान किया।
1950-1992 के बीच नगरीय शासन के क्षेत्र में महानगरों में नगर निगम और उनसे छोटे नगरों में प्रायः नगर परिषद् या नगरपालिकाएं जैसी संस्थाएं पूर्व की भांति निरंतर क्रियाशील रहीं। पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तथा अन्य राज्यों ने नगरपालिकाओं की दशा का अध्ययन कर, उनमें प्रशासकीय सुधारों के लिए सुझाव देने के लिए समिति नियुक्त की। राज्य सूची का विषय होते हुए भी भारत सरकार ने नगरीय स्वायत्त शासन की संस्थाओं की समस्याओं के अध्ययन के लिए 1951 में स्थानीय वित्त जांच समिति, 1968 में नगरपालिका कर्मचारी प्रशिक्षण समिति, 1963 में ही नगरीय स्वायत्त संस्थाओं के वित्तीय विकास के लिए मंत्रियों की समिति, 1966 में ग्रामीण नगरीय संबंध समिति और 1968 में नगरीय कर्मचारियों की सेवा शर्तों से संबंधित समिति नियुक्त की।
स्वतंत्र भारत में स्थानीय संस्थाओं के विकास के 1992 तक के काल में इन संस्थाओं के कार्यकरण में अनेक कमियों और न्यूनताओं का अनुभव किया गया। इनमें प्रमुखतः इन संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता का आभाव, इनके अनियमित चुनाव, दीर्घकाल तक इस संस्थाओं के अधिक्रमित अर्थात राज्य सरकारों द्वारा इन्हें अकारण भंग रखे जाने, इनकी दयनीय आर्थिक दशा, इन्हें पर्याप्त शक्तियों व अधिकारों का अभाव, इन संस्थाओं के चुनावों के आयोजन के लिए प्रभावी संरचना के आभाव तथा इन संस्थाओं में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति और महिलाओं को अपर्याप्त प्रतिनिधित्व आदि ऐसी प्रमुख स्थितियां थीं, जिनके निराकरण की मांग विभिन्न अवसरों पर भिन्न मंचों से निरंतर उठती रही थीं।