सौंदर्य का वर्णन कविता द्वारा करिए ।
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विद्यापति का सौन्दर्य वर्णन
“वास्तव में जीवन सौन्दर्य की आत्मा है। सामंजस्य की रेखाओं में जितनी मूर्तिमत्ता पाता हूँ, विषमताओं में नहीं। ज्यों-ज्यों हम बाह्य जीवन की विविधताओं में उलझते जाते हैं, त्यों-त्यों इसके मूलगत सौन्दर्य के भूलते जाते हैं।” – (महादेवी)
सौन्दर्य चेतना का उज्ज्वल वरदान है, सौन्दर्य ही जीवन की आत्मा है। इस नश्वर संसार में जब हम एक-दूसरे के साथ समान भाव से मिलजुल कर रहते हैं, तभी हम आपसी प्रेम रूपी-सौन्दर्य की प्राप्ति कर पाते हैं। जब मनुष्य ‘सौन्दर्य’ की खोज केवल बाह्य ‘भौतिक आडम्बरों’ में करता है तो वह अपने आतंरिक मूलगत सौन्दर्य को भूल जाता है। जबकि- आतंरिक सुन्दरता ही स्थायी एवं सच्ची होती है।
वास्तव में सौन्दर्य क्या है ? इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सौन्दर्य की कोई सीमा या मापदण्ड नहीं होता है। संसार की वह हर वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन सबका अपना अलग-अलग गुण, धर्म या सौन्दर्य होता है। लेकिन वह सुन्दरता वस्तुनिष्ठ है या व्यक्तिनिष्ठ वह तो देखने वाले पर निर्भर करती है। क्योंकि संसार का हर एक मनुष्य किसी वस्तु को देखता तो आँखों से ही हैं लेकिन सबका नजरियाँ अलग-अलग होता है। जैसे- जब मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण को प्रजा देखती थी तो श्रीकृष्ण का सौन्दर्य ‘प्रजा के रक्षक’ (तारणहार) के रूप में दिव्य-सौन्दर्य की प्राप्ति होती थी। लेकिन जब श्रीकृष्ण के उसी दिव्य-सौन्दर्य को ‘राजा कंश’ देखता था तो वही दिव्य-सौन्दर्य रूपी मूर्ति कंश को उसके ‘काल’ के रूप में भयभीत करती थी। इस प्रकार एक तरफ हम देखते हैं कि श्रीकृष्ण का वही दिव्य-सौन्दर्य जहाँ एक तरफ सौन्दर्य बिखेर रहा होता है, वही दूसरी तरफ वही दिव्य-सौन्दर्य भय का संचार भी कर रहा होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सौन्दर्य द्रष्टा की आँखों में बसता है।
सौन्दर्य अपने आपमें ही बहुत व्यापक शब्द है। सौन्दर्य की चर्चा केवल रूप सौन्दर्य के माध्यम से नहीं की जा सकती है। सौन्दर्य रूप, प्रकृति, श्रमिक, युद्ध आदि सबका सौन्दर्य होता है। संसार में कुछ ऐसी भी चीजें होती हैं जिसे देखकर हमें प्रसन्नता होती है। और उस वस्तु को हम बार-बार देखना चाहते हैं, सौन्दर्य वहां भी होता है। विद्यापति भी ऐसी ही दृष्टिकोण के कवि हैं। विद्यापति स्वयं के सौन्दर्यानुभूति को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। ऐसा करने के लिए उन्होंने चाहे मिथिला की सुंदरियों के सौन्दर्य को निहारा हो, या रानी लखिमा देवी के सौन्दर्य से अभिभूत हुए हो, चाहे राधा-श्रीकृष्ण के छवि की कल्पना करते हुए आध्यात्मिकता में भी प्रवेश किया हो। जहाँ पर इन्होंने नायिका के बाह्य सौन्दर्य के वर्णन को ‘वय: संधि’ के माध्यम से प्रकट किया है, वहीँ पर दूसरी तरफ विद्यापति अरूप-सौन्दर्य के साथ-साथ नायक के भी अपरूप सौन्दर्य को उभारा है। विद्यापति नायक-नायिका के बाहरी सौन्दर्य को चित्रित्र करने में जितने कुशल हैं, उतने ही वह आतंरिक मनोदशा को भी रेखांकित करने में प्रवीण रहे हैं।
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