साधु का स्वभाव किसके समान होना चाहिए और क्यों
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साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ 'सज्जन व्यक्ति' से है। साधु का स्वभाव सूप के समान होना चाहिए क्यूंकि वह तत्व की बातों को ग्रहण करता है और व्यर्थ की बातों को छोड़ देता है |
वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है उन्हें भी साधु कहा जाने लगा है। साधु(सन्यासी) का मूल उद्देश्य समाज का पथप्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु सन्यासी गण साधना, तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते है और अपने जीवन को त्याग और वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में विलीन हो जाते है। वे किसी की निंदा नहीं करते और मीठे वचन बोलते हैं। जिसके स्पर्श मात्र से हमारे जीवन में सुगंध निर्माण हो जाये उसको असली साधु कहते है।
उनका का जीवन सरल होना चाहिए और उसका काम जीवन में भटके हुए लोगो को सही राह दिखाना है। साधु विषयों में लिप्त नहीं होते, शील एवं सद्गुणों की खान होते हैं। वे सम-भाव रखते हैं, शत्रु-भाव नहीं। वे लोभ, क्रोध, मद, हर्ष, भय से परे होते हैं। उनका चित्त कोमल होता है। वे दयालु होते हैं। उन्हें कोई कामना नहीं होती। शांति, वैराग्य, विनय एवं प्रसन्नता में मग्न रहते हैं।
गीता में सन्यास के बारे में विस्तार से बताया गया है कि गेरुवा वस्त्र वाला, भिक्षा मांगने वाला, अग्नि और कर्म के त्याग वाला सन्यासी या साधु नही होता है। बल्कि ज्ञानयोगी को ही साधु कहते हैं।