स्वामी तीनी जगाची आई वीनी भिखारी निबंध
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भिखारी पर निबंध / Essay on Beggar in Hindi!
भिक मांगकर अपनी जीविका चलनेवाले भीखारी या भिखियुक कहलाते है। वह व्यक्ति जो शारीरिक या मानसिक रूप से इतना अक्षम हो कि वह स्वयं परिश्रम करके अपनी जीविका नहीं चला सकता, उसे भीख माँगकर खाने का ही सहारा रह जाता है । ऐसा व्यक्ति द्वार-द्वार जाकर भीख की झोली या कटोरा फैलाता है और जो कुछबासी-ताजा मिलता है, उसे खाकर संतुष्ट रहता है ।
भीख माँगकर गुजर-बसर करना कोई सम्मान की बात नहीं । समाज भिखारियों को ओछी निगाहों से देखता है । कोई उसे दुत्कार देता है तो कोई दयावश उसकी झोली में एक-आध सिक्का डाल देता है । शरीर से लाचार, वृद्ध एवं दीन दशा से युक्त भिखारी सचमुच दया के पात्र माने जाते हैं, परंतु उन्हें भी बार-बार गिड़गिड़ाना पड़ता है, ईश्वर का वास्ता देना पड़ता है और दुआएँ देनी पड़ती हैं । उन्हें किसी चौराहे या नुक्कड़ पर, देवस्थलों पर या किसी भीड़ – भाड़ वाली जगह पर अपना आसन जमाकर बैठना पड़ता है । मंदिरों के सामने तो भिखारियों के झुंड के झुंड रहते हैं । यहाँ दाता भी बड़ी संख्या में आते हैं । कोई देकर धर्म कमाता है, तो कोई लेकर । लेन-देन और दान-पुण्य का यह व्यवसाय सदियों पुराना है ।
भारत में भिखारियों की बहुत बड़ी संख्या निवास करती है । इनमें से अनेक स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट भिखारी भी हैं जो अपनी काहिली के कारण भिक्षाटन के पेशे में आ गए हैं । इनमें से कुछ धार्मिक चोगा धारण किए रहते हैं कि दाता उन्हें देखते ही दया का पात्र समझें । गेरूआ वस्त्र पहने भिखारी हाथों में कमंडल और भिक्षापात्र लिए द्वार-द्वार भटकते हैं और इस तरह भीख माँगते हैं कि जैसे वे भिक्षा देनेवालों पर ही कृपा कर रहे हैं । जिसने मुझे दान नहीं दिया उसे पाप लगेगा । ऐसे समर्थ एवं ढोंगी भिखारियों को दान देना किसी अधर्म से कम नहीं । भिक्षा केवल उसी भिखारी को दी जानी चाहिए जो इतना लाचार हो कि श्रम करके अपना गुजर-बसर नहीं कर सकता ।
भिखारी अक्सर फटा-पुराना वस्त्र पहनता है । उसके शरीर से बदबू आती है । उसके चारों ओर मक्खियों का झुंड मंडराता है । उसके पास झोली चादर और जो कुछ होता है वह गंदा होता है । उसकी शरीर में मैल जमा होता है । वह मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं होता । उसे स्नान और शरीर शुद्धि से कोई मतलब नहीं । वह ऐसा जान-बूझकर करता है । वह मनोविज्ञान का पारखी होता है । वह जानता है कि अच्छी वेश- भूषा से युका होने पर उसे कोई भीख नहीं देगा । अत : वह स्वयं को अत्यंत दीन-हीन और अशक्त प्रस्तुत करता है ।
ऐसे भिखारी बड़ी संख्या में हैं जो भीख माँगकर बड़े आराम का जीवन जीते हैं । वे मजे से खाते-पीते हैं और नशा करते हैं । एक-एक, दो-दो के सिक्कों से उनके पास अच्छी-खासी दौलत जमा हो जाती है । वे समाज की सहिष्णुता और दयाभावना का अनुचित लाभ उठाते हैं । ऐसे भिखारियों को दान देना श्रम का अपमान करना है । ईश्वर ने मनुष्य को हाथ-पाँव दिए हैं ताकि वह श्रम करके जी सके । परंतु हाथ-पाँव और शरीर के सभी अंगों से युक्त होते हुए यदि भीख माँगा और दिया जाए तो यह अधर्म है ।
भिक मांगकर अपनी जीविका चलनेवाले भीखारी या भिखियुक कहलाते है। वह व्यक्ति जो शारीरिक या मानसिक रूप से इतना अक्षम हो कि वह स्वयं परिश्रम करके अपनी जीविका नहीं चला सकता, उसे भीख माँगकर खाने का ही सहारा रह जाता है । ऐसा व्यक्ति द्वार-द्वार जाकर भीख की झोली या कटोरा फैलाता है और जो कुछबासी-ताजा मिलता है, उसे खाकर संतुष्ट रहता है ।
भीख माँगकर गुजर-बसर करना कोई सम्मान की बात नहीं । समाज भिखारियों को ओछी निगाहों से देखता है । कोई उसे दुत्कार देता है तो कोई दयावश उसकी झोली में एक-आध सिक्का डाल देता है । शरीर से लाचार, वृद्ध एवं दीन दशा से युक्त भिखारी सचमुच दया के पात्र माने जाते हैं, परंतु उन्हें भी बार-बार गिड़गिड़ाना पड़ता है, ईश्वर का वास्ता देना पड़ता है और दुआएँ देनी पड़ती हैं । उन्हें किसी चौराहे या नुक्कड़ पर, देवस्थलों पर या किसी भीड़ – भाड़ वाली जगह पर अपना आसन जमाकर बैठना पड़ता है । मंदिरों के सामने तो भिखारियों के झुंड के झुंड रहते हैं । यहाँ दाता भी बड़ी संख्या में आते हैं । कोई देकर धर्म कमाता है, तो कोई लेकर । लेन-देन और दान-पुण्य का यह व्यवसाय सदियों पुराना है ।
भारत में भिखारियों की बहुत बड़ी संख्या निवास करती है । इनमें से अनेक स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट भिखारी भी हैं जो अपनी काहिली के कारण भिक्षाटन के पेशे में आ गए हैं । इनमें से कुछ धार्मिक चोगा धारण किए रहते हैं कि दाता उन्हें देखते ही दया का पात्र समझें । गेरूआ वस्त्र पहने भिखारी हाथों में कमंडल और भिक्षापात्र लिए द्वार-द्वार भटकते हैं और इस तरह भीख माँगते हैं कि जैसे वे भिक्षा देनेवालों पर ही कृपा कर रहे हैं । जिसने मुझे दान नहीं दिया उसे पाप लगेगा । ऐसे समर्थ एवं ढोंगी भिखारियों को दान देना किसी अधर्म से कम नहीं । भिक्षा केवल उसी भिखारी को दी जानी चाहिए जो इतना लाचार हो कि श्रम करके अपना गुजर-बसर नहीं कर सकता ।
भिखारी अक्सर फटा-पुराना वस्त्र पहनता है । उसके शरीर से बदबू आती है । उसके चारों ओर मक्खियों का झुंड मंडराता है । उसके पास झोली चादर और जो कुछ होता है वह गंदा होता है । उसकी शरीर में मैल जमा होता है । वह मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं होता । उसे स्नान और शरीर शुद्धि से कोई मतलब नहीं । वह ऐसा जान-बूझकर करता है । वह मनोविज्ञान का पारखी होता है । वह जानता है कि अच्छी वेश- भूषा से युका होने पर उसे कोई भीख नहीं देगा । अत : वह स्वयं को अत्यंत दीन-हीन और अशक्त प्रस्तुत करता है ।
ऐसे भिखारी बड़ी संख्या में हैं जो भीख माँगकर बड़े आराम का जीवन जीते हैं । वे मजे से खाते-पीते हैं और नशा करते हैं । एक-एक, दो-दो के सिक्कों से उनके पास अच्छी-खासी दौलत जमा हो जाती है । वे समाज की सहिष्णुता और दयाभावना का अनुचित लाभ उठाते हैं । ऐसे भिखारियों को दान देना श्रम का अपमान करना है । ईश्वर ने मनुष्य को हाथ-पाँव दिए हैं ताकि वह श्रम करके जी सके । परंतु हाथ-पाँव और शरीर के सभी अंगों से युक्त होते हुए यदि भीख माँगा और दिया जाए तो यह अधर्म है ।
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Explanation:
ajjsjdkgoueuudujkcckofodijajdijvkvigofof
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