स्वामी दर्शनानंद जी को शास्त्रार्थ करने की बड़ी धुन थी इसका पता कैसे चलता है ?
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स्वामी दर्शनान्द (१४ जनवरी १८७५ जगराँव, लुधियाना - ११ मई १९१३ हाथरस) आर्यसमाज के एक सन्यासी एवं शिक्षाविद थे जिन्होने अनेक संस्कृत गुरुकुलों की स्थापना की।
स्वामी दर्शनानन्द का जन्म माघ कृष्णा 10 संवत् 1918 विक्रमी को लुधियाना जिले के जगरांव कस्बे में पंडित रामपरताप शर्मा के यहां हुआ। इनका मूल नाम कृपाराम था। इनकी पैतृक जीविका वाणिज्य की थी, किन्त इसमें मन न लगने के कारण कृपाराम ने शीघ्र ही घर का त्याग कर दिया और काशी चले गये। यहां वे अपने यग के परसिद्ध विद्वान पं. हरिनाथ के शिष्य बन गये। काशी निवास के समय उन्होने अनुभव किया कि इस विद्याक्षेत्र में रहकर अध्ययन में परवृत्त होने वाले छात्रों को शास्त्र ग्रन्थ सुलभ रीति से उपलबध नहीं होते। छात्रों की इस कठिनाई को हल करने के लिए उन्होंने काशी में ‘तिमिरनाशक प्रेस’ की स्थापना की और सहस्रों रूपये व्यय कर संस्कृत गरनथों को स्वल्प मूल्य पर सुलभ बनाया। इस अवधि में उनहोंने निम्न ग्रन्थ प्रकाशित किये-
सामवेद मूल, अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा काशिका वृत्ति, वैशेषिक उपसकार, न्याय दर्शन पर वात्स्यायन भाष्य, सांख्य दर्शन पर विज्ञानभिक्षु का प्रवचन भाष्य और अनिरुद्ध वृत्ति, कात्यायन श्रौतसूत्र, मूल ईशादिदशोपनिषत्संगरह (1889), श्रीमदभगवद्गीता मूल (1945 वि.), अन्नयभट्ट का तर्क-संगरह मूल (1945 वि.), तर्क-संग्रह की न्यायबोधिनी टीका (1945 वि.), शब्द-रूपावली (1945 वि.) मीमांसादर्शन मूल, बादरायण कृत शारीरक सूत्र-शंकरानन्द कृत वृत्ति सहित (1945 वि.)।
अब तक वे आर्यसमाज के सम्पर्क में आकर उसके सिद्धान्तों को अंगीकार कर चुके थे। 1893 से 1901 तक उन्होंने उत्तर भारत के विभिनन प्रान्तों में वैदिक धर्म का प्रचार किया। 1901 में शान्त स्वामी अनुभवानन्द से संन्यास की दीक्षा लेकर पं. कृपाराम ने 'स्वामी दर्शनानन्द' का नाम धारण किया। उनहोंने अपने जीवन काल में पौराणिक, जैन, ईसाई तथा मुसलमान धर्माचार्यों से अनेक शास्तरार्थ किये, अनेक स्थानों पर गुरकलों की स्थापना की तथा अनेक पत्र निकाले। उनके द्वारा परकाशित व सम्पादित पत्रों का विवरण इस परकार है-[1]