Hindi, asked by pappunishad5699, 2 months ago

स्वामी विवेकानंद जी ने भारत में शिक्षा प्रसार पर किस
प्रकार के सुझाव दिये हैं ? स्पष्ट कीजिए।

Answers

Answered by khushi565148
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Answer:

हमारे देश का गौरव बढ़ाने में बहुत से महापुरुषों ने सहयोग किया है, जिसके कारण ही भारत को विश्व गुरु की संज्ञा दी जाती है, इन महापुरुषों के विचार सुन कर हमे जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त होता है और हम सही मार्ग पर चलने लगते है, यह विचार हमारे लिए एक प्रकाश स्तम्भ का कार्य करते है, जो सम्पूर्ण विश्व में भारत की कीर्ति को स्थापित करते है, इस पेज पर हम ऐसे ही महापुरुष के विषय में जानकारी प्रदान करने जा रहे है, जिन्होंने अपनी तेजस्व वाणी से अमेरिका के शिकागो की धरती पर एक ज्ञान का स्तम्भ खड़ा किया है, लाखों भारतीयों के ह्रदय स्थल को छूने वाले आदरणीय स्वामी विवेकानंद के शिक्षा के संबंध में क्या महान विचार थेस्वामी विवेकानंद जी के शिक्षा के संबंध में विचार इस प्रकार है-

भारत की वर्तमान और भविष्य में आने वाली परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये हमें अपनी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने की अति आवश्यकता है, हमें ऐसी वर्तमान शिक्षा की आवश्यकता है, जो समय के अनुकूल हो, हमारी दुर्दशा का मूल कारण, नकारात्मक शिक्षा प्रणाली है |

वर्तमान शिक्षा प्रणाली केवल क्लर्क पैदा करने की मशीनरी मात्र है, यदि केवल यह इसी प्रकार की होती है तो भी मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ

इस दूषित शिक्षा प्रणाली के माध्यम से शिक्षित भारतीय युवा पिता, पूर्वजों, इतिहास एवं अपनी संस्कृति से घृणा करना सीखता है, वह अपने पवित्र वेदों, पवित्र गीता को झूठा समझने लगता है, इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली के द्वारा तैयार हुए युवा अपने अतीत, अपनी संस्कृति पर गौरव करने के बदले इन सब से घृणा करने लगता है और विदेशियों की नकल करने में ही गौरव की अनुभूति करता है, इस शिक्षा प्रणाली के द्वारा व्यक्ति के व्यक्त्तिव निर्माण में कोई भी सहयोग प्राप्त नहीं हो रहा है |

ऐसी शिक्षा का क्या महत्व है, जो हम भारतीय को सदैव परतंत्रता का मार्ग दिखाती है, जो हमारे गौरव, स्वावलंबन एवं आत्म-विश्वास का क्षरण करती है |

Answered by atulramteke7000
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Answer:

स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षा' की संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ?

अतः स्वामी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है, इसलिए शिक्षा में उन तत्वों का होना आवश्यक है, जो उसके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में,

तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।

स्वामी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते हैं। लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि 'हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।' पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।'

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त संपादित करें

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

१. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।

२. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने।

३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।

४. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।

५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।

६. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।

७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।

८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।

९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।

१०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।

११. शिक्षा ऐसी हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ती दे।

१२. स्वामी विवेकानंद के अनुसार व्यक्ति को अपनी रूचि को महत्व देना चाहिए|

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा पर विचार मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया पर केन्द्रित हैं, न कि महज़ किताबी ज्ञान पर। एक पत्र में वे लिखते हैं–"शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक-विद्या है? नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।" शिक्षा का उपयोग किस प्रकार चरित्र-गठन के लिए किया जाना चाहिए, इस विषय में विवेकानंद कहते हैं, "शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग़ में ऐसी बहुत-सी बातें इस तरह ठूँस दी जायँ, जो आपस में, लड़ने लगें और तुम्हारा दिमाग़ उन्हें जीवन भर में हज़म न कर सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हज़म कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है।"

देश की उन्नति–फिर चाहे वह आर्थिक हो या आध्यात्मिक–में स्वामी शिक्षा की भूमिका केन्द्रिय मानते थे। भारत तथा पश्चिम के बीच के अन्तर को वे इसी दृष्टि से वर्णित करते हुए कहते हैं, "केवल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर और वहाँ के ग़रीबों के भी अमन-चैन और विद्या को देखकर हमारे ग़रीबों की बात याद आती थी और मैं आँसू बहाता था। यह अन्तर क्यों हुआ? जवाब पाया – शिक्षा!" स्वामी विवेकानंद का विचार था कि उपयुक्त शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व विकसित होना चाहिए और चरित्र की उन्नति होनी चाहिए। सन् १९०० में लॉस एंजिल्स, कैलिफ़ोर्निया में दिए गए एक व्याख्यान में स्वामी यही बात सामने रखते हैं, "हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य के इसी व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत हम केवल बाहर से पालिश करने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि भीतर कुछ सार न हो तो बाहरी रंग चढ़ाने से क्या लाभ? शिक्षा का लक्ष्य अथवा उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही है।"

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