Hindi, asked by aadibarle, 3 months ago

स्वामी विवेकानंद के विचारों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता।)​

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Answered by sumitkumar00711
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Explanation:

आज इस मंच पर स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है......... पर कुछ महान आत्माएं ऐसी होती है की जिनके बारे मे सबकुछ लिखे जाने के बाद भी कुछ शेष रह जाता है......... जिनके बारे मे लिखने ओर बोलने मे भी सम्मान का भाव पैदा होता है............ तो इसी लोभवश कुछ शब्द मैं भी लिखना चाहता था सो लिख रहा हूँ..........

स्वामी विवेकानंद का जीवन वर्तमान समय मे आदर्श है.......... उनके जैसा विचारशील युवा अब होना मुश्किल है........ आज जब की पश्चिम की देखा देखि हम अपनी बहुमूल्य सम्पदा अपनी संस्कृति को त्याग कर पाश्चात्य संस्कृति के रंग मे रंग रहे है......... तो ऐसे मैं विवेकानंद का स्मरण किया जाना आवश्यक है......... विवेकानंद ने जिस संस्कृति को हम अनदेखा कर रहे हैं ....... उसे यूरोप मे अपने ओजपूर्ण भाषण से ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया................

यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है की हिन्दू धर्म की पताका यूरोप मे फहराने वाले स्वामी विवेकानंद आज के युवा की भाति ही तार्किक प्रवृति के थे......... पर आज के युवा की तरह उन्होने कभी भी यूं ही धर्म ओर संस्कृति पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की......... उन्होने इसके बारे मे जानने के लिए प्रयास भी किया......... कई गुरुओं की शरण मे जा कर वो अंत मे रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे ........... परमहंस ने इस युवक को अपने प्रमुख शिष्य का स्थान दिया........

स्वामी विवेकानंद के संदर्भ मे कई ऐसे प्रसंग है जो उनकी महानता को प्रदर्शित करते हैं........... जैसे स्वामी विवेकानंद जब शिकागो सम्मेलन मे भाग लेने गए तो वहाँ इस बात की बड़ी चर्चा थी की विवेकानंद ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं....... तो एक सुंदर युवती उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से वहाँ पहुंची ...... युवती ने निवेदन करते हुए कहा ....

महाराज मैं आपकी ही तरह एक तेजस्वी पुत्र चाहती हूँ..........

विवेकानंद ने तत्क्षण उस युवती से कहा तो आज से ही आप मुझे अपना पुत्र मान लीजिये........

ओर इस तरह उन्होने उस युवती को अपने उत्तर से शर्मिंदा कर दिया..........

किन्तु कभी कभी ये प्रश्न उठता है की जब कभी भी इस देश के गौरव की बात होती है तो हम सम्मान से कहते है की हम उसी देश के हैं जहां स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष हुए..........

पर जब बाहर के देशों से आई हुई महिला पर्यटकों के साथ दुर्व्यवहार व छेदखानी की घटनाएँ होती है तो हम भूल जाते हैं की हम उस महापुरुष के गौरव को भी खंडित कर रहे है, जिसने अपने अदभूद उत्तर से उस युवती को निरुत्तर कर दिया.........

जब स्वामी विवेकानंद विदेश गए........ तो उनकी भगवा वस्त्र ओर पगड़ी देख कर लोगों ने पूछा “ आपका बाँकी सामान कहा है....?” स्वामी जी बोले.... “बस यही सामान है“….

तो कुछ लोगों ने व्यंग किया कि....... “अरे! यह कैसी संस्कृति है आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है....... कोट – पतलून जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है... ?”

स्वामी विवेकानंद मुस्कुराए....... ओर बोले ........ “हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से भिन्न है.... आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं...... जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है..... संस्कृति वस्त्रों मे नहीं, चरित्र के विकास मे है......”

यदि आज के वर्तमान दौर मैं स्वामी विवेकानंद पुनः इस धरा पर अवतरित हों तो उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना होगा........ तब घर के संस्कारों को बाहर दूर तक फैलाना था....... ओर आज पहले घर मे घुस ओर बस चुके बाहर के कुसंस्कारों को हटाना होगा............. हर बार हम विवेकानंद जी की जयंती मानते हैं.............. पर कभी भी उनकी बातों मे खुद अमल नहीं करते......

मैंने पढ़ा था (वाक्य ठीक ठीक याद नहीं ) की विवेकानंद ने कहा था की मुझे 50 युवा मिल जाए तो मैं नव राष्ट्र निर्माण कर सकता हूँ...... पर तब उन्हें इतने युवा नहीं मिले ........ पर आज अगर पूछा जाए तो कई लाख लोग कहते मिल जाएंगे की यदि तब हम होते तो हम उनका साथ देते.......

पर शायद नहीं ......... तब हम भी इंतज़ार करते की कब वो परमधाम पहुँच जाएँ ओर हम उनको पूज्य बना कर हर झंझट से बच जाए........ क्योकि जिंदा व्यक्ति के सामने झूठ नहि चल सकता ...... पर उनकी तसवीर के सामने न जाने क्या क्या हम कर जाते हैं....... तो ये जरूरी नहीं की विवेकानंद जी के राष्ट्र निर्माण के लिए उनका पुनः आगमन आवश्यक है.......... आवश्यकता है तो उस संकल्प की ओर उनके दिखाये मार्ग पर चल कर अपनी धर्म और संस्कृति की रक्षा की...............

Answered by agrawalrajat958
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Explanation:

इस संसार में मनुष्य योनि से बढ़कर और कुछ भी नहीं। मनुष्य प्रयास से अपने अन्दर दैवी गुणांे को समाहित करने मंे समर्थ है तथा पाश्विक वृत्ति को स्वीकार कर वह समस्त ब्रह्माण्ड मंे खुद को पतित सिद्ध कर सकता है। मूल्य परायण सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण मनुष्य का लक्ष्य होता है जो परिवार से विश्व तक सुख-शांति और समृद्धि का वातावरण प्रशस्ततर करता है। जबतक मूल्य के स्वरूप का बोध नहीं होता है, कार्य रूप मंे स्वीकार नहीं किया जाता, अपने अन्दर उसे गुम्फित न किया जाता तब तक सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण असंभव है।

मानव मन की दो गतियाँँ होती हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति। इन दोनों मंे निवृत्ति श्रेष्ठ होती है परन्तु यदि प्रवृत्ति लोकपरायणा या लोकोपकारिका हो तो वह भी श्रेयस्करी समझी जाती है। खुद को छोड़ परोन्मुखी भाव हीं मानवीय चेतना होती है। महान ऋृषि-मुनि तपस्वी महात्मा जीवन के सम्यक् संचालन के लिए जिस मार्ग को स्वीकार करते हैं वही आजतक हमारे आदर्श मानवमूल्य और अक्षयनिधि हैं क्योंकि “महाजनो येन गतः सः पन्था” अर्थात् महापुरूषांे के अपनाए मार्ग हीं हमारेे जीवन को लक्ष्य प्राप्त कराने वाले पथ हैं।

भारतवर्ष धर्मप्राण देश है और भारतीय संस्कृति धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत है। भारतीय धर्म का आधारपीठ है- आस्तिकता, सर्वशक्तिशाली भगवान की जागरूक सŸाा में अटूट विश्वास। धर्म के प्रमुख चार अंग या विषय हैं। प्रथम अंग आचार विषयक है तो द्वितीय व्यवहार सम्बन्धी। तीसरा विषय प्रायश्चित और चैथा कर्मफल।

आज भारतवर्ष को स्वतन्त्रता प्राप्त किये छः दशक बीत गये।वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ भौतिक प्रगति भी हुई परन्तु कहीं न कहीं धार्मिक भावना का हªास हुआ फलस्वरूप चारित्रिक पतन यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। हिंसा, अपहरण, उत्कोच, भ्रष्टाचार, व्यभिचार इत्यादि घटनाओं का अम्बार लगा है। युवाशक्ति के विवेक का जागरण आवश्यक है। एतदर्थ वैश्वीकरण के आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।

प्रस्तुत शोध-पत्र में स्वामी विवेकानन्द के विचारों के आधार पर विभिन्न मानवीय मूल्यों की प्रासंगिकता पर विचार किया गया है। साथ हीं उपनिषद् वाक्य ‘‘उŸिाष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत’’ सहित स्वामीजी द्वारा बताये गये राष्ट्र की महŸवपूर्ण आवश्यकता शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आध्यात्म, धर्म आदि के सन्दर्भ में विभिन्न ग्राह्य तŸवों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

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