स्वार्थ और परमार्थ मानव की दो प्रवृत्तियां हैं। हम अधिकतर कार्य अपने लिए करते हैं | 'पर' केलिए
सर्वस्व बलिदान करना ही सच्ची मानवता है । यही धर्म है, यही पुण्य है । इसे ही परोपकार कहते हैं ।
प्रकृति हमें निरंतर परोपकार का संदेश देती है । नदी दूसरों के लिए बहती है। वृक्ष जीवों को छाया तथा
फल देने के लिए ही धूप,आंधी, बर्षा और तूफानों में अपना सबकुछ बलिदान कर देते हैं।
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स्वार्थ और परमार्थ इस गद्यांश का उचित शीर्षक है
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