संविधान निर्माण के प्रक्रियाओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें
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भारत में संवैधानिक व्याख्या का विकास
पहला चरण: पाठवादी दृष्टिकोण
अपने शुरुआती वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने एक पाठवादी दृष्टिकोण (Textualist Approach) अपनाया, जो कि संविधान में उल्लिखित शब्दों के शाब्दिक अर्थ पर केंद्रित था। उदाहरण के लिये वर्ष 1950 में ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के भाग III में उल्लेखित मौलिक अधिकारों की व्याख्या की थी, जो कि इस संदर्भ शुरुआती मामला था। इस मामले में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के नेता ने दावा किया कि 'निवारक निरोध' कानून अनुच्छेद-19 (स्वतंत्रता का अधिकार), अनुच्छेद-21 (जीवन का अधिकार) और अनुच्छेद-22 (मनमानी गिरफ्तारी और हिरासत के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार) के साथ असंगत था। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने 'निवारक निरोध' कानून की वैधता को बरकरार रखा और स्पष्ट किया कि उक्त सभी अनुच्छेद (अनुच्छेद-19, 21, 22) पूर्णतः अलग विषय वस्तु से संबंधित हैं और इन्हें एक साथ नहीं पढ़ा जाना चाहिये। संवैधानिक व्याख्या के पहले चरण में संविधान से संबंधित सबसे विवादास्पद प्रश्न यह था कि क्या संविधान विशेष रूप से मौलिक अधिकारों में संशोधन के लिये संसद की शक्ति पर कोई सीमा है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने पाठवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए निष्कर्ष दिया कि संसद की शक्तियों पर इस प्रकार की कोई सीमा नहीं है।
दूसरा चरण: संरचनावादी दृष्टिकोण
दूसरे चरण में सर्वोच्च न्यायालय ने व्याख्या के अन्य तरीकों की खोज शुरू की और धीरे-धीरे संवैधानिक व्याख्या हेतु शाब्दिक अर्थ पर केंद्रित पाठवादी दृष्टिकोण का स्थान संविधान की समग्र संरचना और सुसंगतता पर केंद्रित संरचनावादी दृष्टिकोण (Structuralist Approach) ने ले लिया। वर्ष 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति के तहत संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इसके पश्चात् वर्ष 1978 में सर्वोच्च न्यायालय ने मेनका गांधी बनाम भारत सरकार वाद में वर्ष 1950 के ए.के. गोपालन मामले के अपने फैसले को ही खारिज कर दिया। इस मामले में जीवन के अधिकार (अनुच्छेद-21) को और अधिक व्यापक रूप दिया गया तथा स्वच्छ हवा, शीघ्र विचारण और मुफ्त कानूनी सहायता जैसे अधिकारों को भी इसमें शामिल किया गया।
तीसरा चरण: परिणाम-उन्मुख व्याख्या
संवैधानिक व्याख्या के तीसरे चरण में सर्वोच्च न्यायालय का व्याख्यात्मक दर्शन अधिक परिणाम-उन्मुख हो गया और सर्वोच्च न्यायालय ने वाद से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर गहनता से विचार करने के अपने दायित्त्व की पूर्णतः उपेक्षा की। इसका एक मुख्य कारण यह था कि सर्वोच्च न्यायालय, जिसकी शुरुआत 8 न्यायाधीशों के साथ हुई थी, में अब 31 न्यायाधीश हो गए थे और लंबित मामलों की बढ़ती संख्या के कारण मात्र 2-3 न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया जाने लगा जिससे न्यायाधीशों के मध्य वैचारिक मतभेद उत्पन्न होने लगे।
चौथा चरण: सामाजिक क्रांति और परिवर्तन
मौजूदा दौर संवैधानिक व्याख्या के विकास का चौथा चरण है, विदित हो कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कई फैसले सुनाए हैं जिनमें व्यक्ति के अधिकारों को मान्यता देकर सामाजिक परिवर्तन के युग की शुरुआत की गई है।
बीते वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने 10-50 वर्ष की महिलाओं को केरल के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने से रोकने वाले प्रतिबंध को हटाते हुए कहा था कि ‘भक्ति में लिंगभेद नहीं हो सकता’।
वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था।