स्वावलंबी एवं स्वाभिमानी देश बनाये पर 800 सभद निबंद लिखे
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लताएं जिन पेड़ों के सहारे आसमान की ऊँचाइयों तक पहुँचती हैं. उनके धराशायी होते ही उनको भी धराशायी होना पड़ता हैं. दूसरों पर अवलम्बित लोगों के साथ भी यही होता हैं. किन्तु जो पेड़ अपने बल बूते पर खड़ा रहता हैं, उनके ऊपर दूसरे पेड़ों के गिरने का कोई असर नहीं पड़ता.
इसी तरह स्वावलम्बी लोग भी अपने बल बूते खड़े पेड़ों के समान ही अडिग रहते हैं. इसलिए स्वावलम्बी मनचाही सफलता एवं स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आवश्यक हैं.
दो शब्दों स्व और अवलम्बन के मिलने से स्वावलम्बन शब्द बना हैं. स्व का अर्थ होता हैं स्वयं एवं अवलम्बन का अर्थ होता हैं सहारा.
इस तरह स्वावलम्बन का तात्पर्य होता हैं किसी वस्तु अथवा कार्य हेतु खुद का सहारा लेना. हम अपने चारों ओर नजर डाले तो पता चलता हैं कि छोटे बड़े जीव जन्तु भी स्वावलम्बी होते हैं. उन्हें अपने भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं पड़ती.
कुछ पशु पक्षी तो जन्म लेने के तुरंत बाद चलने फिरने एवं स्वयं भोजन प्राप्त करने में सक्षम होते हैं. मनुष्य के साथ ऐसा नहीं हैं, उसे जन्म के बाद कुछ समय तक अपनी माँ पर निर्भर रहना पड़ता हैं. इसके स्वावलंबी होने तक वह अपने परिवार व समाज का सहयोग प्राप्त करता हैं.
स्वावलम्बन से ही मनुष्य की प्रगति सम्भव हैं. स्वावलम्बी व्यक्ति ही अपना और अपने परिवार का भरन पोषण करने में सक्षम होता हैं. हरिवंश राय बच्चन ने स्वावलम्बन के महत्व के बारे में बताते हुए लिखा हैं.
“पश्चिम की हैं एक कहावत उसको धोखो उसको धोखो
राम सहायक उनके होते जो होते हैं आप सहायक”
कहने का अर्थ यह हैं कि ईश्वर भी उन्ही की सहायता करता हैं, जो खुद की सहायता के लिए तैयार हैं. बैसाखी के सहारे चलने वाले व्यक्ति की यदि बैसाखी छिन ली जाए तो वह चलने में असमर्थ हो जाता हैं. ठीक यही स्थिति दूसरों के सहारे जीने वाले लोगों की भी होती हैं.
मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता हैं. इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता हैं, किन्तु सहयोग अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदि हो जाता है. दूसरों पर उसकी निर्भरता परतन्त्रता का भी कारण बनती हैं.
दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के वास्तविक सुखों का उपभोग नहीं कर सकता, क्योकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता हैं. इसलिए कहा गया हैं पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं. वास्तव में स्वावलम्बन ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देता हैं.
स्वावलम्बन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरी कर पाता हैं. उसे इसके लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नही पड़ती.
मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता हैं लेकिन इसके लिए परिश्रम करने से यथासम्भव बचने की कोशिश भी करता हैं. इसी कारण वह अपने कार्यों एवं वस्तुओं के लिए निर्भर होने लगता हैं. स्वावलम्बन व्यक्ति के लिए ही नहीं राष्ट्र के लिए आवश्यक हैं.